26 दिसंबर 2008

अजनबी

एक अजनबी

जाना पहचाना-सा

अपना-सा लगता है

नहीं लगता है - बेगाना-सा

नहीं करता बात - दीवानों-सी

आसमान से चाँद-तारे तोड़ने की

या उफनती लहरों को

ओढ़नी बनाने की

पाँव रहते हैं ज़मीन पर

वह बात करता है

भावनाओं की/ संवेदनाओं की

चाय, काफ़ी, महंगाई की

क्रिकेट, पे-कमीशन और

मुंबई के आतताई की

नेता-अभिनेता, माफिया

सभी उसको प्रभावित करते हैं

सर्द हवा के थपेड़े

उसे कुछ और समेट देते हैं

वह अजनबी

बहुत आम है

ख़ास कभी-कभी ही होता ही

तब-

जब भरनी होती है बच्चों की फीस

या पत्नी को लेनी होती है कोई ट्रीट

महीने के आखिरी दिन

और आम-चुनाव का दिन

तभी-

वह अजनबी-

अपना-सा लगता है

जाना पहचाना-सा लगता है

मासूम/ प्यारा-सा लगता है

वह अजनबी !

6 दिसंबर 2008

पत्थर

हमने जो पत्थर तराशे
नींव में सब सो गए
मील के पत्थर शहर की
भीड़ में सब खो गए
अब किसे आवाज़ दें
जब हर तरफ दीवार है
शब्द हैं खामोश
इशारे भी यहाँ लाचार हैं
धूप रिश्तों की बची जो
आओ उसमें बैठ लें
उम्र की छोड़ो यहाँ पर
ज़िन्दगी व्यापार है

16 नवंबर 2008

….ज़रूरी तो नहीं

हर सीप में मिल जाए मोती
यह ज़रूरी तो नहीं
हर शख्स में मिल जाए इन्सां
यह ज़रूरी तो नहीं
धूप के साए में तिनकों से बना हैं आशियाँ
चाँद की हो चाँदनी
यह ज़रूरी तो नहीं

बेसबब हंसना पड़ेगा
यह ज़रूरी तो नहीं
आँख भर आए तो रोएँ
यह ज़रूरी तो नहीं
हिचकियाँ आएँ अगर तो आपका ही नाम लें
मय में इतना भी नशा हो
यह ज़रूरी तो नहीं

जंग-ए-मैदां में अदावत
यह ज़रूरी तो नहीं
साथ हो शमशीर, चेतक
यह ज़रूरी तो नहीं
हौसला रखो तो मंजिल ख़ुद-बा-ख़ुद मिल जायेगी
आग का दरिया हो मुश्किल
यह ज़रूरी तो नहीं

9 नवंबर 2008

धुंए के अस्तित्व

क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?
शनैः-शनैः-----
गाढ़ी होती धुंए की परतें!
दम घोंटती धुंए की चादर!!
क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

सड़कों पर दौड़ती सीटियाँ;
मकानों से झांकती वीरानियाँ;
.......किसी से अनजाने में ही
छलक पड़ती हैं-
शमशानों की खामोशियाँ!
किसके लिए-
यह कष्ट कर रही हैं?
किसके लिए -
यह त्याग कर रही हैं?
[शायद -
सम्पूर्ण मानव जाति के
हित में / व्रत में।
क्योंकि इंसान ही को प्रेम है-
वीरानगी से]
क्या यह ग्लोब के टुकडों की
भूखी हैं?
मेरा लहू बिकाऊ है।
आप क्यों नहीं खरीद लेते?
इन्हें मेरा लहू पिलाईये / अर्पित कीजिये
इसी के तो इन्हें प्यास है - आस है;
मेरा मांस -
उनके आगे फेंकिये / भक्षण कराइए -
इसी के वह भूखे हैं।
लेकिन-
क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

सूखे होठों पर खेलती हँसी;
ज़िन्दगी मौत से जूझती-सी कहीं;
साँस लेते ही अचानक-
.......कसमसाने लगी
मौत फिर से कहीं।
किसने कहा है-
खून सारा ही पी लो?
किसने कहा है-
मांस सारा ही खा लो?
न कोई अब भूख से त्रस्त है।
न रहेगा।
न अब कोई कमज़ोर है।
न रहेगा। क्योंकि -
दूध की सरिता प्रवाहशील है?
दुग्ध-समाधि क्यों नहीं ले लेते??
[बाढ़ की-
अतुलनीय जलराशि में हुई
जल-समाधि की भाँति। ]
क्यों नहीं-
बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं?
देखते नहीं-
कितनी सुविधा है!
राम-राज्य है!!
स्वराज्य है!!!
अहिंसा-वाद है!!!!
और तो और
समाजवाद का (मामूली सा) बोझ/ शायद है-
[कल ही-
उसमें दबकर/ उस
दुर्बल/निर्बल प्रजा की
मौत हो गयी है
जिसकी झुकी पीठ पर। इस-
समाजवाद का ढोंग
लदा था। ]
बोझ है तो क्या?
है तो समाजवाद ही।
लेकिन-क्यों?
आपकी आखों से-
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

6 नवंबर 2008

ग़ज़ल


तुम्हे सुर्ख रंग ही चाहिए, मेरे दिल का रंग ले लो
तुम्हे खेल कोई चाहिए, मेरे दिल से आज खेलो

हर हाल में रहा हूँ, ज़िन्दा रहूँगा यूँ ही
यहाँ राख ही रही है, यहाँ राख ही रहेगी
नहीं खौफ़ है क़हर का, शोले मिलें या शबनम
ग़र तुम्हे शराब चाहिए, अश्कों को मेरे पी लो
तुम्हे सुर्ख रंग ही चाहिए, मेरे दिल का रंग ले लो....

मुझे ग़म नहीं की मैंने, काँटों का साथ माँगा
जब नींद में बशर थे, रातों को मै क्यों जागा
मेरे लहू से रोशन, ये हिज़ाब है सहर का
इस रंग को चुरा कर, होठों को तुम सज़ा लो
तुम्हे सुर्ख रंग ही चाहिए, मेरे दिल का रंग ले लो....

4 नवंबर 2008

पायल की झंकार

हाँ! मैंने सुनी है

मधुर

पायल की झंकार / तब
जब तुम मेरे सीने पर
अपने होठों से चुम्बन देकर
झंकृत कर देती थीं -
मेरा रोम-रोम
मेरा अंग-अंग
उसी क्षण बज उठती थी
तुम्हारे साँसों के स्वर में
मधुर
पायल की झंकार
हाँ! मैंने सुनी है।


जब मुझे जीवन घड़ियां
उदासी देने लगीं -
जब प्रातः स्वर्ण रश्मियाँ
बासी लगने लगीं
तब..........हाँ! तब ही -
तुमने मेरा नाम लेकर
मुझे पुकारा
संगीत के सुरों पर थपकी देकर
..............हाँ! तब ही
तुमने हाथों में गुलाल लेकर
आकाश में बिखेरा
अपने सिन्दूरी कपोलों की लाली देकर
उसी क्षण गूँज उठी थी
तुम्हारी चितवन के स्वर में
मधुर
पायल की झंकार
हाँ! मैंने सुनी है

1 नवंबर 2008

कुछ दूर तो चल कर देखें

मुमकिन है सफर हो आसाँ, कुछ दूर तो चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर

दो चार कदम हर रास्ता, पहले की तरह लगता है
शायद कुछ रास्ता बदले, कुछ दूर तो चल कर देखें
झूठा ही सही यह रिश्ता , मिलते ही रहें हम यूँ ही
हालात नहीं बदलेंगे, रिश्ते ही बदल कर देखें

सूरज की तपिश भी देखी, शोलों की कशिश भी देखी
अबके जो घटा ये छाये, बरसात में चल कर देखें
अब वक्त बचा है कितना, जो और लड़े दुनिया से
दुनिया की नसीहत पर भी, थोड़ा सा अमल कर देखें

मुमकिन है सफर हो आसाँ, कुछ दूर तो चल कर देखें

कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें

27 अक्तूबर 2008

तमन्ना


जुगनुओं ने भी दीयों से कुछ माँगा है

रौशनी दे के जग जगमगा दें

ऐसा हौसला

एक ख्वाब न हो

हकीकत बने। क्योंकि

आज उतरे हैं लाखों

तारे ज़मीन पर!!


दीपावली पर्व की हजारों - हजारों शुभकामनायें


19 अक्तूबर 2008

सच

अगर आज की रात ठंडी है तो
ज़रूरी नहीं - कल सुबह
ठंडी ही हो।
सुबह सूरज के निकलते ही
तुम्हे एहसास होगा
गुनगुनाहट का -
एक प्रक्रिया के आरम्भ होने का -
जिसमे घुलने लगेगी
रात की ठंडक।
और फिर तुम्हे एहसास होगा
उष्णता क्या होती है
जलन किसे कहते हैं
तपन किसे कहते हैं

अगर आज की शाम शाँत है तो
ज़रूरी नहीं - रात के पहर
शाँत ही हों।
अखबार हाथ में आते ही
तुम्हे एहसास होगा -
वास्तविकता का
एक तूफ़ान के कहर ढाने का
जिसमे कई जिस्म छलनी हुए होंगे
आग की लपलपाती गोलियों से
और फिर -
तुम्हे एहसास होगा
सत्य क्या होता है
शाश्वत किसे कहते हैं
ताण्डव किसे कहते हैं

तब तुम्हारे माथे पर चमकेगा
स्वेद-कण! और तुम उसे -
बार-बार पोंछना चाहोगे।
तब तुम्हारे मस्तिष्क पर चमकेगा
खून का रंग! और तुम उसे -
बार-बार मिटाना चाहोगे.
लेकिन ऐसा होगा नहीं
तब तक ............जबतक
रात की तरह ही
सुबह ठंडी हो।
............शाम की तरह ही
रात के पहर शांत ही हों।

13 अक्तूबर 2008

मुक़र्रर

“तुमसा हँसीं दुनिया में नहीं और कोई
मुझसा दीवाना नहीं दुनिया में और कोई”

“हर शम्मा थरथराती है ढल जाने के पहले
ज़िन्दगी भी कसमसाती है मौत आने के पहले”

“मुझे किसी और की तमन्ना ना हो सकी
बस! तेरी तमन्ना के सहारे ही यह उम्र गुज़र गयी”

“हसरत-ए-दीदार लिए, बैठा था एक ज़माने से
सिलसिला-ए-उम्र टूटा, एक तेरे आने से”

“क्या ख़ूब तू क़ातिल है, जाने जिगर
देख, तेरे आने से कफन सुर्ख हो चला”

“मेरे आगोश की तमन्ना है, तेरे दिल को ऐ सनम
क्यों जुल्म ढाती हो, दिल-ऐ-मासूम पर”

“मौत से यह कह दो, मुझे खौफ़ नहीं कोई
अब ज़िन्दगी पर ज़िन्दगी का, पहरा लगा दिया”

“इतना हँसीं ख़याल था, तेरे आने का ऐ-सनम
इसी उम्मीद के सहारे, लेते रहे जनम”

“जब से तेरी आंखों से कई जाम पिए हैं
सीने में बस तमन्ना-ऐ-वस्ल लिए हैं”

“इस क़दर ना तोता-चश्म हो यारब
ख़ैर! यह भी तेरी कातिल अदा सही”

“हर अदा में नज़ाक़त है, अंदाज़ में नफासत
नज़रों में शरारत है, तेरी चाल में क़यामत
अदाएं तेरी मुझे वहशी ना बना दें
कब तक मैं सम्भालूँ, इस दिल में शराफत”

“इस दिल की हर धड़कन से भी महबूब हो तुम मुझे
बन्दा तो क्या ख़ुदा से भी अज़ीज़ हो तुम मुझे’

“तेरे क़दमों की क़सम खा कर कहता हूँ मै सनम
कहीं खाक़ में न मिल जाऊं मैं, खुदा की क़सम”

“कोई किसी दर्द की दवा कब तक किया करे
जब दर्द-ए-दवा ख़ुद ही, दर्द में बसा करे”

12 अक्तूबर 2008

पसीने की बूँद

आज सड़कों ने भी / शायद
ठण्ड से बचने का प्रयास किया है.
तभी तो कोहरे का शाल,
.............ओढ़ लिया है।
शायद बहुत अधिक गर्म है यह –
कोहरे का शाल।
तभी तो सड़क के माथे पर
पसीने की बूँद चमक उठी है।
यह कोहरे का शाल नहीं हो सकता।
क्यों की –
केवल शाल ही इतनी गर्मी दे?
सम्भव नहीं। तब?
हो सकता है यह कम्बल हो
क्यों की एक कम्बल ही
इतनी गर्मी देता है (गरीबों को) लेकिन
इतनी नहीं की
पसीने की बूँद चमक उठे।
हो सकता है यह बूँद गर्मी से न जन्मी हो
हर-पल बोझ उठाने से ही, यह
पसीने की बूँद चमक
उठी है। लेकिन
फिर भी वह –
वह कोहरे का शाल ही है
जिसे सड़कों ने ओढ़
रखा है।

[08.12.1981]

11 अक्तूबर 2008

अर्ज़ किया है......


“दिले पुरखूं से न खेलो अबस
चश्मे मैगूँ से पी है अभी-अभी”

“गिला तेरा नहीं जो तेरी नज़रे बदल गई
है कसूर ज़माने का जो हवा बदल गयी”

“दोशीजा लबों का हुस्न ही जज़्बे-हुस्ने यार है
मसायब हैं मेरी मस्ते-शबाब क़ातिल तेरी अदाएं”

“बुझती हुई शमाँ के मालिक से पूछिए
कितना? कहाँ-कहाँ पे हुआ दर्द रत भर”

“यह क्या? आपकी नज़रें बदल गयीं
अभी ख्वाब में ही आपने इकरार किया था”

“पहले की तुमसे कोई, शिकवा कर सकूँ
अपने लबों से तुम मुझे, ख़ुद ही पुकार लो”

“कुछ और तबस्सुम लबों पर बिखेरिये
फिर मौत से जूझते परवानो को देखिये”

“ऐसा नहीं की हमने, न हँसने की कसम खाई है
मजबूर थे, जब भी हँसे तेरे अश्कों की याद आयी है”

“होने लगी है रात जवाँ चराग़ बुझ चले
आओ जलायें दिल की यहाँ रौशनी तो हो”

“उफ़! यह अदाएं, यह तेरी शोख हँसीं
जला आशियाँ की सरशारियाँ मसायब मेरी”

“कुछ और पिला आ, की मुझे होश है अभी
मुश्किल है क्या, दो जाम उठा की मुझे होश है अभी”

“लो मैं चल दिया जुदा होकर ज़माने से
सकूं मिल जायेगा दिल को, तड़पता था ज़माने से”

“खुदा की कसम तुझे तो मौत भी न पूछेगी
जलायेगी तुझे, आ-आ कर तुझसे रूठेगी”

“मिला दी खाक में हस्ती, तेरा हो साथ अश्कों से
यही इक आह निकली है, मेरे टूटे हुए दिल से”

10 अक्तूबर 2008

खोज

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर

छलावा, छलता रहा मुझे –

ज्योति-पुंज का। दूर

और भी दूर होती गयी किरण

क्षीण। अति-क्षीण होते-होते

खो गयी बियाबन में प्रकाश की बूँद

शनैः -शनैः

माथे पर उभरे स्वेद बिन्दु

निढाल साँसों को

ढाल बनाकर – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

जलते मरुस्थल!

काँटों की बाढ़ !!

पथरीले जंगल!

महकते उपवन!!

कुछ भी नहीं रोक सके मेरी

जिजीविषा का उन्माद।

निस्तेज आंखों पर छाये अंधेरे

भूख से अकुलाती आंतें –

पीठ से चिपकता पेट। कांपती टांगें

सूखे जिस्म के सहारे

ढूँढता रहा हूँ बियाबान में रौशनी की किरण।

शनैः -शनैः

होठों पर उभरी शुष्क सलवटों पर

ढुलक कर आ गए

स्वेद कणों ने किया है

जीवन संचार –

वन भेदन को – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

[August 7th 1985]

9 अक्तूबर 2008

अर्ज़ है......

"आज फिर रोशन हुआ चराग मेरी महफिल में
जवाब ख़त का आया मुझे ज़िन्दगी देने"

"गुजरी बहार थी कभी दामन के रास्ते
अब तो यहाँ निशान ही बाकी बचे रहे"

"तेरे जज़्बात को हम क्या जानें ?
बनते रहे, बिगड़ते रहे आशियाने"

"तेरे सुर्खरू हयात की लाली जानम,
मेरे प्यार के मय की साकी जानम।
चम्पई रंग में लिपटा तेरा मरमरी शबाब,
किसी शायर के जज़्बात की परस्तिश जानम॥"

"याद है मुझको तेरे खिलवाड़ का मंजर,
नज़रों से मेरी नज़रों के तेरे प्यार का मंजर।
जला कर दिल में इक शम्मा अंधेरों को बुला लेना,
तेरे इकरार करने का हँसी एक ख्वाब का मंजर॥"

"करार तेरा क्यों कर मुझे बे-करार करता है?
तोता-चश्म होकर क्यों नज़र का वार करता है।"

"दिले शिकस्ता से पूछिए संगो-खिश्त का अंदाज़
किस तरह बिखरा क्रिचियों में आइना दिल का । "

8 अक्तूबर 2008

विभ्रम


व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की
व्यर्थ ही बिता रहा है
वह पल / जो पल
क्षण-प्रतिक्षण जा रहा है;
शून्य में.

सुबह ही देखा था कहीं
आइना – टूटा हुआ.
बिखरा हुआ.
अपना ही चेहरा दिखा
सहमा हुआ.
बिगडा हुआ.
और फिर टूटा मन का विभ्रम –
मैं एक नहीं था
हर टुकड़े से मैं ही झाँक रहा था
ख़ुद अपने को आँक रहा था.
मेरे मुह में कसैला स्वाद
और भी कसैला होकर
एहसास दे गया अपनी
तीव्रता का.
तीक्ष्णता का.

क्योंकि-
अब आने वाला हर पथिक
दिखता है व्यथित. किंतु
सुबह की सफेदी में –
नहीं देखता
आइना .......टूटा हुआ अब तो
देखता है
मेरे मन का टूटा विभ्रम.
क्योंकि वह नहीं लेना चाहता
जोखिम –
अपने प्रतिबिम्ब को
टुकडों में बाटने का.
उसका –
व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की !

7 अक्तूबर 2008

बहार आती ही नहीं

मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं
चश्म-ए-तर से बहारें नज़र आती ही नहीं
न जाने राज़ क्या है, दिले हालत क्या है?
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

बहारें आज तलक़ मुझसे ख़फा क्यों हैं
उनकी आंखों के सागर में नशा क्यों है
मुझे अब ज़िन्दगी जाने क्यों रुलाती ही नहीं
हंस पाता हूँ और अश्कों को बहा पता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

महफिल-ए-गुल में, काँटों की ज़रूरत क्या है
उनकी साँसों में खुशबू की ज़रूरत क्या है
दीवानों को शम्मा, जाने क्यों जलाती ही नहीं
जाम लबरेज़ हैं, होठों से लगाता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

किसी मायूस जिगर में, मुस्कराहट क्यों हैं
ख़्वाब की राख से उठता, धुवां क्यों हैं
‘धीर’ अब ज़िन्दगी कंधों से संभालती ही नहीं
आरजू मौत की करता हूँ, जो मिलती ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

(26.08.1979)

6 अक्तूबर 2008

सभ्यता को आइना

लगी है किसी की –
नुमाइश यहाँ
आइये! देखिये!!
किसी की पाक़ इज्जत के उड़ते
दरख्ते.
लेकिन –
मुस्कुराना यहाँ बिल्कुल मना है.
ठहाके बेखौफ़ लगाइए?
आँसू न बहाइये.
वह तो बहेंगे ही नहीं
केवल कहकहे लगाए??

झपटिये / नोचिए
मगर जरा शराफत के साथ.
लूटिये / खसोटिये
मगर जरा नज़ाकत के साथ.
लेकिन – ठहरिये
जरा दूर ही रहिये
अपने उजले-से (?) दामन पर
दाग न लगवाइये.
देखिया न
कितनी गलीज़ है यह
इसे पकड़ कर काँधों का सहारा
ना दीजिये –
आप देखते नहीं....
कितनी मुंहफट है यह
कहीं सच न बोल दे !
कहीं जलील न कर दे !!
आपके पाक़ दामन पर –
थूंक न दे !!!
होशियारी से / ज़रा दूर से
केवल हँसी ही उडाइये.
क्योंकि –
यही तो आपको आता है.


(13.01.1980)

5 अक्तूबर 2008

जिज्ञासा


सागर की लहरों में
आज जिज्ञासा है
आकाश चूमने की.
इसीलिए तो उनमे
उफान आ रहा है
उबाल आ रहा है
शायद इसलिए
क्योंकि
सूरज की तपिश अबतक
उन्हें झुलसाती रही है / जलाती रही है
और अब – जब की
लहरों में सिमटा है एक
उबाल / उफान
लहरों ने ठान ली है
आकाश छूने की जिज्ञासा.
लेकिन मैं –
अब भी किनारे पर ही खड़ा हूँ.
सागर के.
इस प्रतीक्षा में कि
लहरें नीचे ना गिरें
लहरें ऊपर ही उठें
आकाश चूमने की जिज्ञासा
के साथ.

हो सके तो मेरा / एकमात्र
सहारा ही ले लें.
लेकिन शायद –
उन्हें इस बात का ज्ञान ही नहीं है.
उनका एकाग्र-चिंतन / मुझमें
ईर्ष्याभाव उत्पन्न करने लगा है.
अब मेरा मन
उन लहरों के उफान से भयभीत होकर
भाग जाने को
उद्द्वेलित कर रहा है.

तभी....
मुझे दिखाई पड़ता है –
एक जूही का फूल.
लहरों में डोलता –
............जूही का फूल.
उसकी जवानी डोलती रही लहरों पर
और –
मैं अब भी विस्मित
उसे एक-टक देख रहा हूँ
आगे बढ़ रहा हूँ ..........
उस फूल को छूने के लिए,
और अब मुझे लहरों के उफान / उबाल से
भय नहीं लग रहा है
और शायद इसीलिए
लहरें मुझे छूने लगी हैं.
मुझे भिगोने लगी है.
लहरों ने मुझे अपने में समेट लिया हैं.
और मुझे ही सहारा दे दिया है
आकाश तक उठाने का संबल दे दिया है –
मुझे –
हाँ मुझे ही आकाश चूमना होगा.
लहरों की जिज्ञासा
मुझे ही पूरी करनी होगी !!

(21.01.1982)

4 अक्तूबर 2008

अधूरा संवाद

आज रात मैं
जागता रहा. सोचता रहा –
कि कल जब तुम मुझसे तन्हाई में/ कभी
मिलोगी. तो मैं तुमसे -
यह कहूँगा .. .. .. वह कहूँगा.

तुम्हारे हाथों को-
कोमल अति-कोमल ही तो?
हाँ, तो तुम्हारे हाथों को,
हाथों में लेकर / अधरों के
सागर तक लाकर
कोमल-सा चुम्बन दूँगा.
जो कहना चाहूँगा नज़रों से
कुछ यूँ ही लब से कह दूँगा….

लेकिन पहले मैं-
जी-भर कर तेरे होठों को...
तेरे मुखड़े को...
तेरे कुंतल को / देखूँगा.
हो सकता है.
नहीं-
यही होगा!!
तेरे लब थर-थराते होंगे
तेरे गालों पर सूरज की सुर्खी छुपकर
शर्माएगी.
धड़कन तेरे सीने की
इस दिल की धड़कन से मिल जायेगी.
और फिर –
मैं तुमसे
यह कहूँगा .. .. .. वह कहूँगा.

3 अक्तूबर 2008

पतझड़


मुस्कुराने दो उन पत्तों को
जो अब तक शाखों पर
इतरा रहे हैं / लहरा रहे हैं -
मुस्कुराने दो उन शाखों को
जिन पर अब तक पत्ते
इतरा रहे हैं / लहरा रहे हैं -
हवा के तेज झोकों से उन्हें
अब तक-
मिलता रहा संगीत.
लेकिन अब यही हवायें उन्हें
सिसकी देंगी
उफ़! कितना क्रूर आभास.
लेकिन यह होगा
क्योंकि पतझड़......
अब आ रहा है. पत्ते
अब किसी पैरों तले रौंदे जायेंगे.
चरर-मरर; चरर-मरर
कराहेंगे. हो सकता है-
दीमक उन्हें चर डाले
क्योंकि पतझड़......
अब आ रहा है. पत्ते -
नहीं! नहीं!! .......आह
मेरी आँखे भीग गयी हैं
क्योंकि पतझड़......
अब आ गया है. पतझड़-
आ गया!!!

2 अक्तूबर 2008

आज हो जो सहर......

आज हो जो सहर, मुझसे वादा करो
आओगे तुम सनम जान पर खेल कर
रूठने जो लगे मौत मुझसे सनम
इक नज़र देख लेना मुलाक़ात में
आज हो जो सहर.....

उसके हंसने से बिजली चमकने लगी
जैसे साकी से बोतल खनकने लगी
उसने खोली जो जुल्फे घटा थम गयी
इस कदर थी हंसीं फूल शर्मा गए
इक नज़र देख लेना......

याद तुमको अगर आज आए मेरी
आँख से बह पड़े आंसुओं की झड़ी
हम यह समझेंगे जन्नत हमें मिल गया
छोड़ सकते नहीं तेरा दामन सनम
इक नज़र देख लेना......

जब से देखा तुम्हें दिल यह कहने लगा
अब ना थामेंगे दामन किसी और का
मौत मेरी हुयी रुसवा हम ही हुए
देख अब तो नहीं तुमको मुझसे गिला
इक नज़र देख लेना......

बुजदिल है अहबाब…

अंधेरों के झुके हुए साए है साथ-साथ
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

मायूस हो रहे हैं कई और हमसफ़र
इस तरह चल सकेगा, भला कौन साथ-साथ
न अज़्म है, न शौक़ है, क्या खूब तू बशर
एक बुत है, खामोश है, बुजदिल है अहबाब
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

मंजिल दिखा-दिखा के मुझे लूटते रहे
लुटता रहा नशे में की लुट रहें हैं साथ-साथ
ये ग़म, ये हवादिस, इन्हीं से जूझते रहे
है शब् भी, शराब भी, मजबूर है शबाब
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

अंधेरों के झुके हुए साए है साथ-साथ
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

शमा रोशन रहे.....


शमा ना थरथराये, शमा रोशन रहे
और भी सजती रहे महफिल, शाम ढलती रहे
आज की हर नज़्म में शामिल आप हों
अभी तो जी लें, न जाने कब यह बात हो
तेरे होठों से निकले अल्फाज़ हम चूम ही लेंगे
होठों से निकला हर गीत हमारा होगा
धड़कने दे दिल की धड़कन को इस तरह
हर बार तेरा नाम ही लेता रहूँ मैं

1 अक्तूबर 2008

जिद है….

“आज बारिश हुई है चाँद से शोलों की
मिला दी खाक़ में हस्ती मुझ गम नशीनों की
क्या खूब यह तबस्सुम, यह रिंद, यह क़हर उनका
इस सिन में यह शौक़, यह सितम उनका”

“ज़िद है अश्कों की होठों से जा लिपटने की
कसम होठों ने खाई है ग़म में जलने की
उलझी हुई जुल्फों से क्यों खेल खेले यह हवा
इनकी सोहबत से मुमकिन है मौत आने की”

“तू हुस्न है, तू इश्क है, नहीं कज़ा ऐ दोस्त
छोड़ यह तुंद चलन, ज़ख्म मचल जायेंगे
दिल यह शीशा है, पत्थर नहीं, टूट जायेगा
मैं तो फरजाना हूँ, फरजाना यह बहक जायेगा”

यह शब, यह शबनम न बुझा पायेगी
यह रख्स नहीं वो जो बुझा दी जाए
बुझ-बुझ के जलती है, जल-जल के बुझती है
हो लाख हवादिस, बे-खौफ जला करती है”

29 सितंबर 2008

कदम लड़खडाने लगे……

क्या इशारा किया आज नज़रों ने तेरी
कदम लड़खडाने लगे
होश आने लगा था मुझे आज लेकिन
कदम लड़खडाने लगे

गुनगुनाते हुए अंजुमन हमने देखे
बहारों में हँसते चमन हमने देखे

यह गुमाँ हमको था फिर खुशी मिल सकेगी
अजब था नशा आज तेरी अदा में
कदम डगमगाने लागे

बहुत चोट खाए बशर हमने देखे
चांदनी में सुलगते मकाँ हमने देखे

यह यकीं था हमें मौत अब तो मिलेगी
इसी अज्म से हम चले जा रहे थे
कदम ज़ख्म खाने लगे

27 सितंबर 2008

याद आता है मुझको....

एक समय जब याद आता है मुझको
मैं तेरी घनी, घटा सी जुल्फों से खेलता था
तू लजाती, शर्माती और झिझकती थी
तेरे होठों का गुलाब, तबस्सुम का दरिया था
आँखें - शांत झील की गहराई थीं
प्यार तेरा मादकता का छलकता जाम था
और अब वो यादें एक नासूर बन गयी हैं
ज़िन्दगी ग़मों का एक दरिया है
जिसमें डूबता - उतराता हूँ मैं
सोच कर तेरी बेवफाई,
दिन-रात दिल जलाता हूँ मैं

26 सितंबर 2008

मैं अश्क बहाती रहती हूँ.....

मैं अश्क बहाती रहती हूँ, फिर भी तकदीर नहीं बदलती

अश्कों की कसमें खाती हूँ, फिर भी नींद नहीं आती

मैं आँसू पीती रहती हूँ, फिर भी यह प्यास नहीं बुझती

नज़रों की प्यास बुझाती हूँ, पर दिल की प्यास नहीं बुझती

तुम जब रहते पास मेरे, तब भी नींद नहीं आती

तुम ना रहते पास मेरे, तब भी नींद नहीं आती

रहती हूँ मैं साथ तेरे, पर दिल की प्यास नहीं बुझती

आखों में छाये रहते हो तुम, आखों की प्यास नहीं बुझती

24 सितंबर 2008

मुक्तांगन में....

"अधरों तक आने को व्याकुल मन में घिरते मुक्त विचार
आलिंगन में कस अधरों का, लेते हैं चुम्बन सुकुमार"

"तुम्हे क्या प्रणति दूँ मैं चिंतन करती ह्रदय-वीणा
प्रिये कहूं, प्रियतमा कहूं, या कह दूँ कवि की पीड़ा"

"हर बंधन का लंघन कर के स्मरण तुम्हारा आता है
चंद्र रश्मि भी मद्धिम लगती, मुखडा तेरा भाता है"

"रक्त की हर बूँद थिरक उठी आपकी बातों से,
महक उठा जीवन उपवन आपकी साँसों से"

"छद्म रूप तेरा छलता मुझको सपनों में आ-आ कर,
नयना आंसू वर्षा करते, सिसकी के सुर-लय पर"

कहना है.....

"ज़िन्दगी का जाम खाली, अश्कों से भर गया
इश्क की ठोकर लगी, पैमाना छलक गया"

"ऐ हुस्न तुझे कसम है, न क़त्ल कर अभी
मुहब्बत की रंगीं है रात, शब-ए-हिज्र तो बरसने दे"

"ऐ हुस्न तू कसम से इंसान नहीं है;
दहकता हुआ शोला है, शबनम नहीं है"

"हाय रे कातिल तेरे तीरे नज़र के घायल हैं हम
तड़प रहे हैं मगर, निकलता नहीं है दम"

"तुमसे क्या करे हम इनकार-ए-मुहब्बत
जब कर ही ना सके थे इकरार-ए-मुहब्बत"

3 अगस्त 2008

इंतज़ार में……..

ख़ूब, बहुत ख़ूब, तबस्सुम हैं तुम्हारे
उठते है, गिरते हैं गालों पे भँवर से

सुबह की पहली ओस हो, तुम रात की हो चांदनी
तुम दूर बहुत दूर मगर दिल के पास हो

ज़िक्र-ए-बेवफाई में मैं खामोश था मगर
होठों ने ख़ुद-बी-ख़ुद तेरा नाम ले लिया

तन्हा हो, परेशां हो, बहुत उदास हो तुम
है शुक्र यह खुदा का, कि फ़क़त मेरा ख्याल है

बैठा हूँ घर में काँच के फेंको ज़रा पत्थर
कुछ और हवादिस हों मेरे अज़्म के लिए

मुहब्बत के किस मुक़ाम में हम आ खड़े हुए
इबादत-औ-अदावत में कोई फ़र्क़ ही नहीं

ज़माने में हुस्न-ओ-इश्क की रवायत बदल गयी
हजूम मजनुओं का है, लैला कोई नहीं

ख्वाबों में जो आना हो तो परदे से ही आना
नीयत मेरी बाखुदा कुछ ठीक नहीं है

मुँह फेर के तुम चल दिए, मेरे दिन ख़राब हैं
वर्ना तो हँसीनों में मेरे चर्चे बहुत हुए

ख़्वाब में, ख़याल में, कभी राह में मिले
आओ फिर एक बार कि दिल खोल के मिलें

हर शख्स अजनबी है, शहर भी नया लगे
आए थे हम दुआ को, तेरे दर पे आ गए

मुहब्बत थी, अदावत थी, शिकायत थी, इबादत थी
मसरुफ ज़िन्दगी में मेरे दिन ये चार थे

फ़कत दुआओं का असर होता नहीं
मेरे बीमार-ए-दिल की दवा भी की होती

एक घर बहुत उदास है तन्हा है आज भी
आँखें ठहर गयी हैं किसी इंतजार में

23 जुलाई 2008

क्षणिका

यत्र-तत्र-सर्वत्र
अस्त-व्यस्त
टुकड़ों में जीता
इंसान
यत्र-तत्र-सर्वत्र
अभिशप्त
टुकड़ों में हारा
बेज़ुबान

आकाँक्षा

बह जाने दो उगता सूरज
गहरे पानी में
आज ढूँढने हैं मोती
उथले पानी में

हाथ छोड़ के साथ चले तुम
पथरीली राहों पर
अंगुली थामे साथ चलो तुम
नर्म रेत के आँचल पर

गालों पे जब-जब भंवर पड़े
फूलों का दामन छोड़ दिया
मस्तक की रेखा को पढ़कर
काँटों से रिश्ता जोड़ लिया

क्षण में उजले हिम शिखर का
उर्वर धरती से नाता
सागर की उन्मत्त लहरों का
इन्द्रधनुषी छाता

बह जाने दो मस्त हवा को
ऋतू बागी मस्तानी में
आज देखना है हमको
किस्मत के खेल रवानी में

21 जुलाई 2008

भूँख

भूँख किसको नहीं लगती?
उसको- जिसके पास-
कुछ है नहीं
खाने को।
उसको- जिसके पास-
कुछ है नहीं
दिखाने को। अतिरिक्त
उन बत्तीस दांतों के।
जो वह अक्सर…
अपने मुँह में ही
चलाता रहता है। हिलाता रहता है।
और जब वह दर्द करने लगते हैं
तो शांत हो जाता है।
क्यों की
उसको भूँख नहीं लगती।
जिसके पास। सब कुछ-
वह सब कुछ है
जिसको वह
सबसे बचा कर। छुपाए रखने का
प्रयास करता है। और
जिसके लिए हर पल-
उदास रहता है। लेकिन वह भी
खाता है-
कुछ सिक्कों के टुकड़े
जब की वह, जिसके पास
कुछ नहीं खाने को-
खाता है-
सिक्कों के टुकड़े चबाने की आवाजों की
मार।
क्यों की-
इन्ही आवाजों ने उसके कान
बहरे बना दिए।
क्यों की-
इन्हीं की आवाजों ने
उसकी रोटी छीन ले।
और अब वाही आवाजें/ सिक्कों की-
उस पर अत्याचार करती हैं.
ज़ुल्म धाती हैं…
क्यों की
उसको bhoonkh नही लगती

(October 12nd 1981)

20 जुलाई 2008

अर्ज़ है……

प्याले से लब मिले, शराबी बन गए
आप से नज़रें मिलीं, आशिक़ बन गए”

“क़त्ल करो न करो, हम तो मरे जाते हैं
जाम मुहब्बत का ‘धीर’, हम तो पिए जाते हैं”

“जीने की तमन्ना अब दिल में नहीं बाकी
बस! ऐ हुस्न, तेरा दीदार हो जाए”

“हर हुस्न बलानोश है अदाएँ
हम खून-ऐ-ज़िगर ऐ ‘धीर’ कैसे दिखाएँ”

“होठों पर तेरे तबस्सुम जो आए
दिल मेरा मचल-मचल जाए”

“लाश से हमारी तूने क़फ़न हटाया
जैसे नक़ाब तूने, हाथों से ख़ुद उठाया”

“क्या तारीफ करुँ तेरे हुस्न की, अल्फाज़ नहीं मिलते
खिजाँ के रोज़ गुलशन में, कभी गुल नहीं खिलते”

“मेरे दिल की मजार पे, यह किसने शम्मा जलायी
क्या इश्क में किसी की, फिर मौत हो गयी?”

“ऐ खुदा! तू सुन ले मेरा अफसाना
तू सब कुछ बना, बेवफा न बनाना”

“है यह नेक-दिली उनकी, जो मैय्यत पर आ गए
तुर्बत पर गुल चढा कर, चार आंसू बहा गए”

“क्या घुट-घुट के मरने को कहते हैं प्यार?
शायद यही रोग मुझे हो गया है यार!!”

“दिलों का क़त्ल होता है, लहू आंखों से बहता है
अदालत में खुदा तेरी, यही इन्साफ होता है”

“नज़रों में क़यामत है, तेरे हुस्न में है जादू
दिल कहता है, दिल तेरे क़दमों में बिछा दूँ”

“कब तक मैं तेरी आरजू किया करूंगा
आखों में भींच तुझे सोया करूंगा”

“वक्त ठहर जाता तो हम तुम्हारे होते
गर्दिश-ए इस हाल में तन्हा तो न होते”

“ऐ सनम! तू जो मुझसे मोहब्बत न करता
ज़िन्दगी भर यह गीत आहों में खोता”

“ख़त में तुमको क्या लिखूं, अल्फाज़ नहीं हैं
ख्यालों में तुम ही तुम हो, कुछ याद नहीं है”

19 जुलाई 2008

प्यासे फूल-प्यासी साँसे


आज कुछ नर्गिस के फूल….
कहीं से आकर-
वहाँ खिलेंगे. जहाँ अक्सर मिलते हैं
केवल
उड़ती हुई धूल के बादल. और जहाँ-
अक्सर मिलती हैं
धूल में लोटती साँसे. लेकिन-
आज कुछ नर्गिस के फूल….
कहीं से आकर-
वहाँ खिलेंगे. केवल
इसी मौसम तक!
क्यों की / अब वहाँ की उड़ती धूल के
बादल –
धूल में लोटती साँसे.
भविष्य हैं. उन नर्गिस के फूलों का
क्यों की / अब उनमे
जिंदगी देने की क्षमता है.
जो कुछ देर पहले तक ख़ुद ही-
साँसों के भिखारी थे.
जो कुछ देर पहले तक ख़ुद ही-
आवाजों के भिखारी थे.
अब.
अब उन फूलों को/ नर्गिस के फूलों को
साँसों की भीख देंगे. अपनी
सूखी हड्डियों से रिसता
खून देंगे. जिसे अब तक उन
नर्गिस के फूलों की जड़ें
चूसती रहीं थी. वहाँ से, जहाँ
वह अक्सर खिला करते हैं

(December 14th 1981)

प्रवर्तन


मेरे हाथ
उन घावों को सहला रहे हैं-
जो पिछले कुछ सालों से,
दर्द करने लगे हैं.
परेशान करने लगे हैं.
क्यों की अब उनमे से
वह सब बहता है
जो कभी नहीं बहता था.
कभी-कभी मेरे हाथ
घावों को सहलाते – सहलाते
उन्हें कुरेदने लगते हैं. शायद इसीलिए
उनमे से
वह सब बहता है
जो कभी नहीं बहता था.
मैंने अपने हाथों की अँगुलियों को
पकड़ रक्खा है.
लेकिन-
अब वो फिर कुलबुला रहीं हैं.
घावों को कुरेदने के लिए-
नासूर बनाना की लिए
जिससे वह सब फिर से
बहने लगे.
जो कभी नहीं बहता था.
जिससे हाथों को फिर
एक बार!
घावों को सहलाने का मौका मिले.
और फिर / एक बार
घावों को कुरेदने का.

(NOVEMBER 17th 1981)

विश्वास

कुछ और नेवले
साँपों की तलाश में आ गए हैं
सभी घूम रहें हैं/ इस घात से
की आज फिर,
कुछ सांप-
धूप को समेटने आयेंगे। और
आज फिर,
शायद कुछ सांप-
हर पल यहाँ ज़ोर आजमाएंगे.
क्यों की वह (नेवले..)
धूप में आकर बैठे हैं,
अपने अँधेरे बिलों से-
ऊब कर।
भूँख के जाल में कैद कर लिया है।
उन्हें- किसी ने।
और अब वह शोर मचा रहे हैं
धूप में ही-
आपस में लड़ रहे हैं-
एक दूसरे को नोंच रहे हैं
क्यों की – कोई भी सांप
अब तक
उधर नहीं आया है।
सांप आयेंगे / ज़रूर आयेंगे-
ऐसा विश्वास है, उस….
नेवले को। जो कोने में
खामोश सा।
माँ की गोद में सिमटा है।
मुस्कुरा रहा है। शायद उनकी बेबसी पर
जो अब तक लड़ झगड़ कर
शांत हो चुके हैं। और-
अब वह धूप में आकर
घात में/ विचारमग्न हो
स्थिर है।
क्यों की उसे विश्वास है
सांप आयेंगे। सांप
ज़रूर आयेंगे॥

(2nd October 1981)

उजालों की साँस

मैं
आवाज़ लगाता हूँ-
वीराने में
अंधेरों में खोए / उजालों के क़ातिल
अंधेरों से झांको –
देखो,
उजाला साँस लेता है
वह शायद कहीं से-
तुम्हे
आवाज़ देता है
अरे! क़ातिलों !!
चलो मुझको खंजर से मारो
अचानक-
यह एहसास होता है / मुझको
कहीं से….दूर से…..
कहाँ से?
कोई आवाज़ दे रहा है
जितना मैं कह रहा था-
वोही दोहरा रहा है

लेकिन नहीं
यह तो कुछ और ही कह रहा है?
शायद यह-
जिंदगी बिक रही है
किराए पर ले लो
मौत!!
जो किराए पर थी
पहले से ही बिक चुकी है
शायद-
बहुत पहले ही

(6th February 1978)

आवाज़

मैं
बेचैन हूँ – इन आवाजों की
कशिश से।
सोता हूँ?
जागता हूँ??
इन आवाज़ों के दामन पर।
ज़िन्दगी की थिरकन है,
इन्हीं आवाज़ों के दामन पर

यह आवाज़ें-
कहाँ से आती हैं?
कितनी मन्द / तीव्र है यह
आवाज़।
किसी भटकती….
अंजान मंजिल की पथिक….
यह आवाज़।
कितनों की ठुकराई / अपनाई-
लंबे सफर से थकती यह
आवाज़।

मैं
पीड़ित हूँ इस आवाज़ के
अस्तित्व से
लेकित सुनना पड़ता है-
इस श्रवणहीन-
क्रंदन का क्रंदन!!
विस्मित।
चकित।
विचलित / अविरल
अंततोगत्वा श्वासों के
स्पंदन का स्पंदन.

कभी
जब तन्हाई के आलम में
……………एकाएक-
बिना बुलाए आगंतुक की तरह.
चकित कर देती है यह
आवाज़!!

तब-
दिल चाहता है, बांहें मरोड़ दूँ……
दिल चाहता है, मुंह भींच दूँ……
दिल चाहता है, गला घोंट दूँ……
लेकित नहीं.
उनकी बेबसी पर आने लगता है तरस, और
तब –
अपने आप
अपने पहलू में समेटना पड़ता है।
[ कुछ उसी तरह
-जैसे कड़वी दवा
पानी के साथ-
धकेलना पड़ता है
गले के नींचे। ]

और फिर
उबकाई! मिचली!!
एक….दो….तीन…
और बाहर उबल पड़ता है-
आवाजों का ढेर.
एक जोरदार उबकाई के साथ.
किसी सोये ज्वालामुखी की तरह
फिर से फूट पड़ती हैं. यह
आवाज़.

धूम्र

शून्य में विलीन
अस्तित्वहीन/ उन्मादित
धूम्र।
फिर भी,
उठते धूम्र की चिरपरिचित सुगंध!
आलिंगन में मचलती
आकाँक्षाओं की राख!!
कितनी तपिश?
कितनी प्यास??
आनंद……उल्लास!
फिर भी-
कितना गहरा यह त्याग!
कितना क्लिष्ट इसका आभास।

असामान्य-
सर्प रेखा सा। विवश
उर्ध्वगामी धूम्र।
अनबूझा / अपरिचित
फिर भी सुंदर।
कुंठा पीड़ित-
अनिश्चित / निरुद्देश्य
आकाशगामी!!
धूम्र-यान!!
किंतु कहाँ है। किसको है?
इसका विश्वास।

18 जुलाई 2008

…….हमसफर कोई और है

हसरतें कुछ और अपनी, मंजिलें कुछ और हैं
काफिले कुछ और होंगे, हमसफर कोई और हैं

रात भर भटका करेंगे, साए में फानूस के
शम्मा तो जलती ही है, पर यह अंधेरे और हैं

यूँ तो हंसते ही रहे हैं, सुनके अपनी दांस्ता
छोड़ दे अपने निशाँ जो, वह तबस्सुम और हैं

उनकी जुल्फों के तले, सोया बहुत मैं रात भर
छाँव ठंडी बन सके जो, वह घटा कुछ और हैं

हमने खोए होश पी के, जाम अश्कों के कई
बिन पिए जो लड़खडाए, वह कदम कुछ और हैं

हमने काँटे ही चुने, थे गुल बहुत से राह में
फूल बन महका करें जो, ख़ार वह कुछ और हैं

वह लुटेरों का शहर था, मैं जहाँ लूटा गया
ख़ुद बिका हूँ मै जहाँ पर, वह शहर कुछ और हैं

वह दरख्त आज टूटा

मेरी हसरतों ने मुझको, तनहाइयों में लूटा
जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

वह शाम हो कहाँ पर, जिसको सहर के आँसू
किसी आँख से चुराकर, कोई रंग देंगे झूठा
किसी ख्वाब में सहर के, बिखरे हुए थे गेसू
यह अंजुमन हमारा, आहट से उनकी टूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

मेरी हर खुशी को तुमने, शोलों पे रख के पूछा
नहीं आग है यह कोई, यह धुआं उठा है झूठा
वह रेत के महल थे, जिन्हें हमने बज्म समझा
लो चल दिया संभालो, मेरा अजम आज टूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

यह अब्र हैं क़हर के, हो सके तो लौट आओ
किसी मोड़ पर न कहना, क्यों साथ अपना छूटा
वह सामने शहर है, अब मुझे न आजमाओ
तुम वह बशर हो जिसने, मंजिल पे मेरी लूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

चला था मुसाफिर

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे।
अगर छाँव जुल्फों की ना मिल सकी तो,
सुलगते दहकते शरारे तो होंगे॥

यह कैसा शहर है जहाँ ग़म ही ग़म हैं,
तबस्सुम की मैय्यत से उड़ते कफ़न हैं।
नहीं दूर तक कोई रोशन शमा है,
लरजते अंधेरों में हंसते बशर हैं॥

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे.

पाँव उठते ही मंजिल हँसी आज हमपर,
यह क्या शौक़ है ज़ख्म अपने छुपा ले।
यकीं है की अश्कों में पिघली मुहब्बत,
इसे वस्ल का एक बहाना बनाले॥

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे.

16 जुलाई 2008

एक विस्फोट और...

एक विस्फोट,
जिसमें कुछ और कराहटें...
----खामोश हो गयीं ।
सब कुछ शायद, अचानक ही -
अनजाने में-
यह बात हो गयी।
कुछ पल बाद -
कुछ पल बाद कुछ होगा;
क्योंकि कुछ होना है।
कुछ वैसा ही/ जैसा-
कुछ पल पहले हुआ। क्योंकि.....
पहले वोह कुछ करता है
फिर सोचता है। समझता है।
ऐसा वोह हमेशा करता है-
ऐसा वह हमेशा करता है-
वह जानता है....
भविष्य अनिश्चित है
वह स्वयं अनिश्चित है।
इसीलिये उसने जो कुछ किया है/ करा है/ करेगा....
भविष्य निश्चित करने के लिए।
स्वयं को निश्चित करने के लिए।

लेकिन -
यही तो एक धोखा है,
मृग-मारीचिका है। वह
कुछ और अनिश्चित हो गया है। हुआ है। होगा.....
क्योंकि यह विस्फोट ।
कर्ण-भेदी विस्फोट। जिसमें -
जाने कितनी कराहटें दब गयीं
साँसे दम तोड़ गयीं।
उसकी/ उसके
भविष्य का रक्षक नहीं।
संहारक हैं।
कुछ और अनिश्चितता !
कुछ और समस्या !
कुछ और उलझन !!
कुछ और तड़पन !!
यह विस्फोट समाधान नहीं...
यह विस्फोट विश्राम नहीं....
यह विस्फोट उन्मूलन नहीं....
यह समस्या है-
यह सूचक है/ तूफ़ान का
यह आरम्भ है/ पतन का
लेकिन -
कैसा तूफ़ान ?
कैसा पतन ??
यही तो तूफ़ान है।
यही तो पतन है।
तब-
तूफ़ान से भी ज़्यादा और कोई तूफ़ान है ?
पतन से भी ज़्यादा और कोई पतन है ??
है..........है............है............!!!
अब उसी का आरम्भ होगा।
अब वही बस शेष है।
---अपना हाथ खोलो .....
यह लो-
और उछाल दो...
उधर -
जहाँ कुछ और कराहटें हैं....
सांसें हैं।
[ दम तोड़ती ]
उन्हें खामोश कर दो।
उन्हें सहारा दे दो॥
दे दो --
और एक विस्फोट !

व्यथा

निस्तेज - निःशब्द
शुन्य में झांकती मेरी आँखों में
अपनी,
तेज-मयी, सशब्द ऑंखें डाल कर
देखो। तब-
हाँ! तब ही शायद तुम मेरे
अंतर्मन की व्यथा समझ सको।
तुमने -
कभी कहीं
जल से जलती दुनिया देखी हो,
यदि तुमने
बारिश में झुलसते मकान देखें हों,
यदि तुमने -
उस तपन / झुलसन को
अपने मस्तिष्क पर उभर आयी
जल की बूंदों में-
---महसूस किया हो
तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे अश्रुजल की कथा समझ सको।

अस्फुट - पीले
शुष्क कांपते मेरे होठों पर
अपने-
रक्ताभ - स्फुटित होठों को रख कर
चुम्बन दो। तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे शब्दों की व्यथा समझ सको।

तुमने - कभी कहीं
अधरों पर बिखरे खंडहर देखें हों,
यदि तुमने सूखे पत्तों पर चलते कदम देखें हों,
यदि तुमने-
उस तड़पन / कसक को
अपने होठों पर लिपटी धूल में
.....................महसूस किया हो
तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे शब्दों की कथा समझ सको।

एक कविता - दो पहलू

कोलाहल
जाने कितने वर्षों का
यह पीड़ित जाल,
मानव-जीवन से लिपटा
यह महाकाल।
धुंधला सा अस्तित्व लिए-
मृत्युजल का कई घूँट पिए-
प्राणी के कोमल अधरों पर,
जाने क्यों लिखता-
मृत्यु गीत।
कितनों की श्वासों की सिसकी।
कितनों के कानों की चीखें।
मिलजुल बनती रूप विशाल!!
कितना अद्भुत यह रूप नया-
कहते हैं इसको-
कोलाहल।
हर पल / हर क्षण
नया द्वंद - युद्ध
ख़ुद अपने को ललकार रहा।
प्रतिपल / तीव्रतम रूप रचा कर
कर्नेंद्रिय विच्छेद रहा।
अपने कानों पर हाथ धरे......
शान्ति ..शान्ति का उच्चारण कर-
जीवन की भिक्षा को आकुल यह -
कोलाहल
चीत्कार रहा!!
नीरवता
उफ़ ! कितना क्रूर यह तीखा शोर,
जीवन के सारे संबल अब,
होते जाते हैं कमजोर।
अचानक--
कोलाहल का मुंह भींच कर......
नीरवता का नंगा नांच।
सब कुछ शांत.......
.......सब कुछ क्लांत।
मरघट के गूंगे होठों पर,
अश्व-विजय की धूमिल मुस्कान।
जीवन का संकेत नहीं-
सृष्टि भी अविच्छन्न नहीं-
सिसकी भी अब क्षम्य नहीं।
बस शांत----------बस शांत!!
कौन सुनेगा नीरव-गान
कौन गुनेगा नीरस-तान
सारे प्राणी भटक रहे हैं --(?)
सुनने को साँसों का स्वर
कहाँ मिलेगा ?
कहाँ मिलेगा ?
मृदुल हास्य।
कहाँ मिटेगी -
मन की प्यास
मरघट के बुझते दीपक से-
नीरवता तब चीख पड़ी-
'मुक्ति चाहिए / नहीं चाहिए
कोलाहल के प्राणों का अनुदान।
मुझमें इतनी शक्ति नहीं है
करने दो अब मुझको-
विश्राम!!

13 जुलाई 2008

......पथिक सी

कुहासों के साए में,
मुखडा छुपाये हुये,
रात की गुनगुनाहट।
जैसे-
किसी अनजान हाथों ने
अनजाने ही अनजाने में
बेफिक्री से रख दिए हों
थरथराती वीणा के तारों पर
कम्पित -
दो हाथ।
बर्फीले झोंकों की हर आह्ट-
जैसे.......
अचानक झटक कर दूर फ़ेंक देने को
अन्यत्र ।
फिसलकर बह जाने को
...................उन्मत्त ।
किसी रजनी के अति कोमल से
गात ,
सन-सन करती तीखी लय पर .....
झींगुरों की झंकार।
धड़कती धडकनों के बहकते
जज़्बात।
थके - थके से क़दमों में
भयभीत / लक्ष्यहीन - पथिक सी
विपथगा या सुपथगा ??
अंधेरों के दृढ़ कुंठित बंधन में
मचलती यह बेबस सी
रात।


अम्बर के पीछे

नीले अम्बर के पीछे, दूर....
शून्य में / कहीं कुछ है।
बिखरा-बिखरा सा;
कैसा?
निश्चित नहीं।
सिर्फ़ अनुमान ही है। आभास ही है।
लेकिन फ़िर भी-
कुछ है.......!!
शायद--
मानव का प्रगतिवाद ??
नहीं -----नहीं
शायद यथार्थवाद।
उल्टा/तिरछा। बिगडा /सीधा-
अंतहीन---
यथार्थवाद ??
शायद--
क्रंदन करता मानव जीवन ?
जंजीरों से जकड़ी जीवित-
साँसे । गर्म -
धुंध में जलती / चीखती
आवाजें । किंतु
श्रवण-हीन चीखों की कडियाँ।
भू तक, नहीं पहुँच / सकती है -
फ़िर भी --
सिसक रही सिसकी की
ध्वनियाँ !!
शायद---
अम्बर की आड़ से झांकता--
विषाद का सूरज ।
प्रताडित - पीड़ित
जन-जीवन,
कड़वा ज़हर / ज़हरीला धुआं -
घुटता जीवन !!!

8 जुलाई 2008

एक क्षण

केवल एक क्षण -
और फिर आभास हुआ
जीवन में व्याप्त शून्यता का। जैसे-
अंधकार का पर्दा
आंखों पर एकाएक आ गया हो
मानो -

सृष्टि का अंतिम ज्वालामुखी
सजीव हो कर,
रगों में करवटें लेने लगा हो
मस्तक पर धमनियों की

धमक । गर्माहट
स्वेद कणों में उबाल
लाने का षडयंत्र करने लगी हों
बस। केवल एक क्षण
और सारे स्वप्न -
ताश के पत्तों की तरह / जैसे
बिखरने लगे हों !

तभी --
शंखनाद / संगीत लहरी
और प्रकाश की एक किरण
शून्य से तैर कर / मानो-
प्रवेश करने लगी मेरे जीवन में। और फिर -
केवल एक क्षण
मानो सजीव हो उठा हो मेरा जीवन।
और
बीत चला हो वह
अंधकारमय -
केवल एक क्षण !!

अनुभूति


भरी दोपहर को
तपती .....
तारकोल की सड़कों पर
नंगे पाँव चलो-
तुम्हे एहसास होगा
मजदूर की मजबूरियों का। तब -
जब तुम्हारा अपना मस्तिष्क
तुम्हारे पावों तले होगा
धूल को ठोकर मार कर आगे बढ़ने की
एक नाकाम साजिश में --
तुम अपने ही सर पर ठोकर मार चुके होगे.
तब तुम्हे एहसास होगा ...
वक़्त की नज़ाकत का.
माथे पर रेंगता पसीना
जब गर्म पिघलता लोहा बन कर
तुम्हारी पीठ पर

आहिस्ता-आहिस्ता रेंगते हुए
तुम्हारे अस्तित्व को तिलमिला देगा-
तब तुम्हे एहसास होगा
खून में जज़्ब उष्णता का.
और तब --
तुम्हे याद आएगी
सुबह की नर्म - ओस में भीगी
घास की। ठंडी हवा के पूर्वी झोकों की.

जिन्होंने तुम्हारी आखों को बोझिल बना कर
बंद कर रखा था.
तब ही तुम्हे बोध होगा
सत्य क्या है -

वास्तविकता क्या है !!

शुभारम्भ

आज एक यात्रा का आरम्भ कर रहा हूँ
एक अंतहीन यात्रा.....
माध्यम ज़रूर नया है
किंतु
भावनाएं अतीत के झरोखों से झांकती
तस्वीर........
सब कुछ कह देने को बेचैन
कब तक रहती खामोश
आख़िर -
कब तक !!