18 जुलाई 2008

…….हमसफर कोई और है

हसरतें कुछ और अपनी, मंजिलें कुछ और हैं
काफिले कुछ और होंगे, हमसफर कोई और हैं

रात भर भटका करेंगे, साए में फानूस के
शम्मा तो जलती ही है, पर यह अंधेरे और हैं

यूँ तो हंसते ही रहे हैं, सुनके अपनी दांस्ता
छोड़ दे अपने निशाँ जो, वह तबस्सुम और हैं

उनकी जुल्फों के तले, सोया बहुत मैं रात भर
छाँव ठंडी बन सके जो, वह घटा कुछ और हैं

हमने खोए होश पी के, जाम अश्कों के कई
बिन पिए जो लड़खडाए, वह कदम कुछ और हैं

हमने काँटे ही चुने, थे गुल बहुत से राह में
फूल बन महका करें जो, ख़ार वह कुछ और हैं

वह लुटेरों का शहर था, मैं जहाँ लूटा गया
ख़ुद बिका हूँ मै जहाँ पर, वह शहर कुछ और हैं

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