7 अक्तूबर 2008

बहार आती ही नहीं

मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं
चश्म-ए-तर से बहारें नज़र आती ही नहीं
न जाने राज़ क्या है, दिले हालत क्या है?
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

बहारें आज तलक़ मुझसे ख़फा क्यों हैं
उनकी आंखों के सागर में नशा क्यों है
मुझे अब ज़िन्दगी जाने क्यों रुलाती ही नहीं
हंस पाता हूँ और अश्कों को बहा पता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

महफिल-ए-गुल में, काँटों की ज़रूरत क्या है
उनकी साँसों में खुशबू की ज़रूरत क्या है
दीवानों को शम्मा, जाने क्यों जलाती ही नहीं
जाम लबरेज़ हैं, होठों से लगाता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

किसी मायूस जिगर में, मुस्कराहट क्यों हैं
ख़्वाब की राख से उठता, धुवां क्यों हैं
‘धीर’ अब ज़िन्दगी कंधों से संभालती ही नहीं
आरजू मौत की करता हूँ, जो मिलती ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

(26.08.1979)

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