18 जुलाई 2008

वह दरख्त आज टूटा

मेरी हसरतों ने मुझको, तनहाइयों में लूटा
जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

वह शाम हो कहाँ पर, जिसको सहर के आँसू
किसी आँख से चुराकर, कोई रंग देंगे झूठा
किसी ख्वाब में सहर के, बिखरे हुए थे गेसू
यह अंजुमन हमारा, आहट से उनकी टूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

मेरी हर खुशी को तुमने, शोलों पे रख के पूछा
नहीं आग है यह कोई, यह धुआं उठा है झूठा
वह रेत के महल थे, जिन्हें हमने बज्म समझा
लो चल दिया संभालो, मेरा अजम आज टूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

यह अब्र हैं क़हर के, हो सके तो लौट आओ
किसी मोड़ पर न कहना, क्यों साथ अपना छूटा
वह सामने शहर है, अब मुझे न आजमाओ
तुम वह बशर हो जिसने, मंजिल पे मेरी लूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

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