16 जुलाई 2008

व्यथा

निस्तेज - निःशब्द
शुन्य में झांकती मेरी आँखों में
अपनी,
तेज-मयी, सशब्द ऑंखें डाल कर
देखो। तब-
हाँ! तब ही शायद तुम मेरे
अंतर्मन की व्यथा समझ सको।
तुमने -
कभी कहीं
जल से जलती दुनिया देखी हो,
यदि तुमने
बारिश में झुलसते मकान देखें हों,
यदि तुमने -
उस तपन / झुलसन को
अपने मस्तिष्क पर उभर आयी
जल की बूंदों में-
---महसूस किया हो
तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे अश्रुजल की कथा समझ सको।

अस्फुट - पीले
शुष्क कांपते मेरे होठों पर
अपने-
रक्ताभ - स्फुटित होठों को रख कर
चुम्बन दो। तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे शब्दों की व्यथा समझ सको।

तुमने - कभी कहीं
अधरों पर बिखरे खंडहर देखें हों,
यदि तुमने सूखे पत्तों पर चलते कदम देखें हों,
यदि तुमने-
उस तड़पन / कसक को
अपने होठों पर लिपटी धूल में
.....................महसूस किया हो
तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे शब्दों की कथा समझ सको।

2 टिप्‍पणियां:

  1. धीरेन्द्र जी
    बहुत सुन्दर लिखा है-
    तुमने - कभी कहीं
    अधरों पर बिखरे खंडहर देखें हों,
    यदि तुमने सूखे पत्तों पर चलते कदम देखें हों,
    यदि तुमने-
    उस तड़पन / कसक को
    अपने होठों पर लिपटी धूल में
    .....................महसूस किया हो
    वाह! वाह! वाह! बधाई

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