19 जुलाई 2008

आवाज़

मैं
बेचैन हूँ – इन आवाजों की
कशिश से।
सोता हूँ?
जागता हूँ??
इन आवाज़ों के दामन पर।
ज़िन्दगी की थिरकन है,
इन्हीं आवाज़ों के दामन पर

यह आवाज़ें-
कहाँ से आती हैं?
कितनी मन्द / तीव्र है यह
आवाज़।
किसी भटकती….
अंजान मंजिल की पथिक….
यह आवाज़।
कितनों की ठुकराई / अपनाई-
लंबे सफर से थकती यह
आवाज़।

मैं
पीड़ित हूँ इस आवाज़ के
अस्तित्व से
लेकित सुनना पड़ता है-
इस श्रवणहीन-
क्रंदन का क्रंदन!!
विस्मित।
चकित।
विचलित / अविरल
अंततोगत्वा श्वासों के
स्पंदन का स्पंदन.

कभी
जब तन्हाई के आलम में
……………एकाएक-
बिना बुलाए आगंतुक की तरह.
चकित कर देती है यह
आवाज़!!

तब-
दिल चाहता है, बांहें मरोड़ दूँ……
दिल चाहता है, मुंह भींच दूँ……
दिल चाहता है, गला घोंट दूँ……
लेकित नहीं.
उनकी बेबसी पर आने लगता है तरस, और
तब –
अपने आप
अपने पहलू में समेटना पड़ता है।
[ कुछ उसी तरह
-जैसे कड़वी दवा
पानी के साथ-
धकेलना पड़ता है
गले के नींचे। ]

और फिर
उबकाई! मिचली!!
एक….दो….तीन…
और बाहर उबल पड़ता है-
आवाजों का ढेर.
एक जोरदार उबकाई के साथ.
किसी सोये ज्वालामुखी की तरह
फिर से फूट पड़ती हैं. यह
आवाज़.

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