16 जुलाई 2008

एक कविता - दो पहलू

कोलाहल
जाने कितने वर्षों का
यह पीड़ित जाल,
मानव-जीवन से लिपटा
यह महाकाल।
धुंधला सा अस्तित्व लिए-
मृत्युजल का कई घूँट पिए-
प्राणी के कोमल अधरों पर,
जाने क्यों लिखता-
मृत्यु गीत।
कितनों की श्वासों की सिसकी।
कितनों के कानों की चीखें।
मिलजुल बनती रूप विशाल!!
कितना अद्भुत यह रूप नया-
कहते हैं इसको-
कोलाहल।
हर पल / हर क्षण
नया द्वंद - युद्ध
ख़ुद अपने को ललकार रहा।
प्रतिपल / तीव्रतम रूप रचा कर
कर्नेंद्रिय विच्छेद रहा।
अपने कानों पर हाथ धरे......
शान्ति ..शान्ति का उच्चारण कर-
जीवन की भिक्षा को आकुल यह -
कोलाहल
चीत्कार रहा!!
नीरवता
उफ़ ! कितना क्रूर यह तीखा शोर,
जीवन के सारे संबल अब,
होते जाते हैं कमजोर।
अचानक--
कोलाहल का मुंह भींच कर......
नीरवता का नंगा नांच।
सब कुछ शांत.......
.......सब कुछ क्लांत।
मरघट के गूंगे होठों पर,
अश्व-विजय की धूमिल मुस्कान।
जीवन का संकेत नहीं-
सृष्टि भी अविच्छन्न नहीं-
सिसकी भी अब क्षम्य नहीं।
बस शांत----------बस शांत!!
कौन सुनेगा नीरव-गान
कौन गुनेगा नीरस-तान
सारे प्राणी भटक रहे हैं --(?)
सुनने को साँसों का स्वर
कहाँ मिलेगा ?
कहाँ मिलेगा ?
मृदुल हास्य।
कहाँ मिटेगी -
मन की प्यास
मरघट के बुझते दीपक से-
नीरवता तब चीख पड़ी-
'मुक्ति चाहिए / नहीं चाहिए
कोलाहल के प्राणों का अनुदान।
मुझमें इतनी शक्ति नहीं है
करने दो अब मुझको-
विश्राम!!

1 टिप्पणी:

  1. हैलो ,

    मेरा नाम लुइस मैन्यूअल Ramalhosa ,

    मैं प्रेम को रग्बी

    आपका ब्लॉग अच्छा है

    मैं ने एक ब्लॉग

    लुइस
    http://eboraguebijuvnil.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं