19 जुलाई 2008

उजालों की साँस

मैं
आवाज़ लगाता हूँ-
वीराने में
अंधेरों में खोए / उजालों के क़ातिल
अंधेरों से झांको –
देखो,
उजाला साँस लेता है
वह शायद कहीं से-
तुम्हे
आवाज़ देता है
अरे! क़ातिलों !!
चलो मुझको खंजर से मारो
अचानक-
यह एहसास होता है / मुझको
कहीं से….दूर से…..
कहाँ से?
कोई आवाज़ दे रहा है
जितना मैं कह रहा था-
वोही दोहरा रहा है

लेकिन नहीं
यह तो कुछ और ही कह रहा है?
शायद यह-
जिंदगी बिक रही है
किराए पर ले लो
मौत!!
जो किराए पर थी
पहले से ही बिक चुकी है
शायद-
बहुत पहले ही

(6th February 1978)

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