8 अक्तूबर 2008

विभ्रम


व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की
व्यर्थ ही बिता रहा है
वह पल / जो पल
क्षण-प्रतिक्षण जा रहा है;
शून्य में.

सुबह ही देखा था कहीं
आइना – टूटा हुआ.
बिखरा हुआ.
अपना ही चेहरा दिखा
सहमा हुआ.
बिगडा हुआ.
और फिर टूटा मन का विभ्रम –
मैं एक नहीं था
हर टुकड़े से मैं ही झाँक रहा था
ख़ुद अपने को आँक रहा था.
मेरे मुह में कसैला स्वाद
और भी कसैला होकर
एहसास दे गया अपनी
तीव्रता का.
तीक्ष्णता का.

क्योंकि-
अब आने वाला हर पथिक
दिखता है व्यथित. किंतु
सुबह की सफेदी में –
नहीं देखता
आइना .......टूटा हुआ अब तो
देखता है
मेरे मन का टूटा विभ्रम.
क्योंकि वह नहीं लेना चाहता
जोखिम –
अपने प्रतिबिम्ब को
टुकडों में बाटने का.
उसका –
व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की !

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