23 जुलाई 2008

क्षणिका

यत्र-तत्र-सर्वत्र
अस्त-व्यस्त
टुकड़ों में जीता
इंसान
यत्र-तत्र-सर्वत्र
अभिशप्त
टुकड़ों में हारा
बेज़ुबान

आकाँक्षा

बह जाने दो उगता सूरज
गहरे पानी में
आज ढूँढने हैं मोती
उथले पानी में

हाथ छोड़ के साथ चले तुम
पथरीली राहों पर
अंगुली थामे साथ चलो तुम
नर्म रेत के आँचल पर

गालों पे जब-जब भंवर पड़े
फूलों का दामन छोड़ दिया
मस्तक की रेखा को पढ़कर
काँटों से रिश्ता जोड़ लिया

क्षण में उजले हिम शिखर का
उर्वर धरती से नाता
सागर की उन्मत्त लहरों का
इन्द्रधनुषी छाता

बह जाने दो मस्त हवा को
ऋतू बागी मस्तानी में
आज देखना है हमको
किस्मत के खेल रवानी में

21 जुलाई 2008

भूँख

भूँख किसको नहीं लगती?
उसको- जिसके पास-
कुछ है नहीं
खाने को।
उसको- जिसके पास-
कुछ है नहीं
दिखाने को। अतिरिक्त
उन बत्तीस दांतों के।
जो वह अक्सर…
अपने मुँह में ही
चलाता रहता है। हिलाता रहता है।
और जब वह दर्द करने लगते हैं
तो शांत हो जाता है।
क्यों की
उसको भूँख नहीं लगती।
जिसके पास। सब कुछ-
वह सब कुछ है
जिसको वह
सबसे बचा कर। छुपाए रखने का
प्रयास करता है। और
जिसके लिए हर पल-
उदास रहता है। लेकिन वह भी
खाता है-
कुछ सिक्कों के टुकड़े
जब की वह, जिसके पास
कुछ नहीं खाने को-
खाता है-
सिक्कों के टुकड़े चबाने की आवाजों की
मार।
क्यों की-
इन्ही आवाजों ने उसके कान
बहरे बना दिए।
क्यों की-
इन्हीं की आवाजों ने
उसकी रोटी छीन ले।
और अब वाही आवाजें/ सिक्कों की-
उस पर अत्याचार करती हैं.
ज़ुल्म धाती हैं…
क्यों की
उसको bhoonkh नही लगती

(October 12nd 1981)

20 जुलाई 2008

अर्ज़ है……

प्याले से लब मिले, शराबी बन गए
आप से नज़रें मिलीं, आशिक़ बन गए”

“क़त्ल करो न करो, हम तो मरे जाते हैं
जाम मुहब्बत का ‘धीर’, हम तो पिए जाते हैं”

“जीने की तमन्ना अब दिल में नहीं बाकी
बस! ऐ हुस्न, तेरा दीदार हो जाए”

“हर हुस्न बलानोश है अदाएँ
हम खून-ऐ-ज़िगर ऐ ‘धीर’ कैसे दिखाएँ”

“होठों पर तेरे तबस्सुम जो आए
दिल मेरा मचल-मचल जाए”

“लाश से हमारी तूने क़फ़न हटाया
जैसे नक़ाब तूने, हाथों से ख़ुद उठाया”

“क्या तारीफ करुँ तेरे हुस्न की, अल्फाज़ नहीं मिलते
खिजाँ के रोज़ गुलशन में, कभी गुल नहीं खिलते”

“मेरे दिल की मजार पे, यह किसने शम्मा जलायी
क्या इश्क में किसी की, फिर मौत हो गयी?”

“ऐ खुदा! तू सुन ले मेरा अफसाना
तू सब कुछ बना, बेवफा न बनाना”

“है यह नेक-दिली उनकी, जो मैय्यत पर आ गए
तुर्बत पर गुल चढा कर, चार आंसू बहा गए”

“क्या घुट-घुट के मरने को कहते हैं प्यार?
शायद यही रोग मुझे हो गया है यार!!”

“दिलों का क़त्ल होता है, लहू आंखों से बहता है
अदालत में खुदा तेरी, यही इन्साफ होता है”

“नज़रों में क़यामत है, तेरे हुस्न में है जादू
दिल कहता है, दिल तेरे क़दमों में बिछा दूँ”

“कब तक मैं तेरी आरजू किया करूंगा
आखों में भींच तुझे सोया करूंगा”

“वक्त ठहर जाता तो हम तुम्हारे होते
गर्दिश-ए इस हाल में तन्हा तो न होते”

“ऐ सनम! तू जो मुझसे मोहब्बत न करता
ज़िन्दगी भर यह गीत आहों में खोता”

“ख़त में तुमको क्या लिखूं, अल्फाज़ नहीं हैं
ख्यालों में तुम ही तुम हो, कुछ याद नहीं है”

19 जुलाई 2008

प्यासे फूल-प्यासी साँसे


आज कुछ नर्गिस के फूल….
कहीं से आकर-
वहाँ खिलेंगे. जहाँ अक्सर मिलते हैं
केवल
उड़ती हुई धूल के बादल. और जहाँ-
अक्सर मिलती हैं
धूल में लोटती साँसे. लेकिन-
आज कुछ नर्गिस के फूल….
कहीं से आकर-
वहाँ खिलेंगे. केवल
इसी मौसम तक!
क्यों की / अब वहाँ की उड़ती धूल के
बादल –
धूल में लोटती साँसे.
भविष्य हैं. उन नर्गिस के फूलों का
क्यों की / अब उनमे
जिंदगी देने की क्षमता है.
जो कुछ देर पहले तक ख़ुद ही-
साँसों के भिखारी थे.
जो कुछ देर पहले तक ख़ुद ही-
आवाजों के भिखारी थे.
अब.
अब उन फूलों को/ नर्गिस के फूलों को
साँसों की भीख देंगे. अपनी
सूखी हड्डियों से रिसता
खून देंगे. जिसे अब तक उन
नर्गिस के फूलों की जड़ें
चूसती रहीं थी. वहाँ से, जहाँ
वह अक्सर खिला करते हैं

(December 14th 1981)

प्रवर्तन


मेरे हाथ
उन घावों को सहला रहे हैं-
जो पिछले कुछ सालों से,
दर्द करने लगे हैं.
परेशान करने लगे हैं.
क्यों की अब उनमे से
वह सब बहता है
जो कभी नहीं बहता था.
कभी-कभी मेरे हाथ
घावों को सहलाते – सहलाते
उन्हें कुरेदने लगते हैं. शायद इसीलिए
उनमे से
वह सब बहता है
जो कभी नहीं बहता था.
मैंने अपने हाथों की अँगुलियों को
पकड़ रक्खा है.
लेकिन-
अब वो फिर कुलबुला रहीं हैं.
घावों को कुरेदने के लिए-
नासूर बनाना की लिए
जिससे वह सब फिर से
बहने लगे.
जो कभी नहीं बहता था.
जिससे हाथों को फिर
एक बार!
घावों को सहलाने का मौका मिले.
और फिर / एक बार
घावों को कुरेदने का.

(NOVEMBER 17th 1981)

विश्वास

कुछ और नेवले
साँपों की तलाश में आ गए हैं
सभी घूम रहें हैं/ इस घात से
की आज फिर,
कुछ सांप-
धूप को समेटने आयेंगे। और
आज फिर,
शायद कुछ सांप-
हर पल यहाँ ज़ोर आजमाएंगे.
क्यों की वह (नेवले..)
धूप में आकर बैठे हैं,
अपने अँधेरे बिलों से-
ऊब कर।
भूँख के जाल में कैद कर लिया है।
उन्हें- किसी ने।
और अब वह शोर मचा रहे हैं
धूप में ही-
आपस में लड़ रहे हैं-
एक दूसरे को नोंच रहे हैं
क्यों की – कोई भी सांप
अब तक
उधर नहीं आया है।
सांप आयेंगे / ज़रूर आयेंगे-
ऐसा विश्वास है, उस….
नेवले को। जो कोने में
खामोश सा।
माँ की गोद में सिमटा है।
मुस्कुरा रहा है। शायद उनकी बेबसी पर
जो अब तक लड़ झगड़ कर
शांत हो चुके हैं। और-
अब वह धूप में आकर
घात में/ विचारमग्न हो
स्थिर है।
क्यों की उसे विश्वास है
सांप आयेंगे। सांप
ज़रूर आयेंगे॥

(2nd October 1981)

उजालों की साँस

मैं
आवाज़ लगाता हूँ-
वीराने में
अंधेरों में खोए / उजालों के क़ातिल
अंधेरों से झांको –
देखो,
उजाला साँस लेता है
वह शायद कहीं से-
तुम्हे
आवाज़ देता है
अरे! क़ातिलों !!
चलो मुझको खंजर से मारो
अचानक-
यह एहसास होता है / मुझको
कहीं से….दूर से…..
कहाँ से?
कोई आवाज़ दे रहा है
जितना मैं कह रहा था-
वोही दोहरा रहा है

लेकिन नहीं
यह तो कुछ और ही कह रहा है?
शायद यह-
जिंदगी बिक रही है
किराए पर ले लो
मौत!!
जो किराए पर थी
पहले से ही बिक चुकी है
शायद-
बहुत पहले ही

(6th February 1978)

आवाज़

मैं
बेचैन हूँ – इन आवाजों की
कशिश से।
सोता हूँ?
जागता हूँ??
इन आवाज़ों के दामन पर।
ज़िन्दगी की थिरकन है,
इन्हीं आवाज़ों के दामन पर

यह आवाज़ें-
कहाँ से आती हैं?
कितनी मन्द / तीव्र है यह
आवाज़।
किसी भटकती….
अंजान मंजिल की पथिक….
यह आवाज़।
कितनों की ठुकराई / अपनाई-
लंबे सफर से थकती यह
आवाज़।

मैं
पीड़ित हूँ इस आवाज़ के
अस्तित्व से
लेकित सुनना पड़ता है-
इस श्रवणहीन-
क्रंदन का क्रंदन!!
विस्मित।
चकित।
विचलित / अविरल
अंततोगत्वा श्वासों के
स्पंदन का स्पंदन.

कभी
जब तन्हाई के आलम में
……………एकाएक-
बिना बुलाए आगंतुक की तरह.
चकित कर देती है यह
आवाज़!!

तब-
दिल चाहता है, बांहें मरोड़ दूँ……
दिल चाहता है, मुंह भींच दूँ……
दिल चाहता है, गला घोंट दूँ……
लेकित नहीं.
उनकी बेबसी पर आने लगता है तरस, और
तब –
अपने आप
अपने पहलू में समेटना पड़ता है।
[ कुछ उसी तरह
-जैसे कड़वी दवा
पानी के साथ-
धकेलना पड़ता है
गले के नींचे। ]

और फिर
उबकाई! मिचली!!
एक….दो….तीन…
और बाहर उबल पड़ता है-
आवाजों का ढेर.
एक जोरदार उबकाई के साथ.
किसी सोये ज्वालामुखी की तरह
फिर से फूट पड़ती हैं. यह
आवाज़.

धूम्र

शून्य में विलीन
अस्तित्वहीन/ उन्मादित
धूम्र।
फिर भी,
उठते धूम्र की चिरपरिचित सुगंध!
आलिंगन में मचलती
आकाँक्षाओं की राख!!
कितनी तपिश?
कितनी प्यास??
आनंद……उल्लास!
फिर भी-
कितना गहरा यह त्याग!
कितना क्लिष्ट इसका आभास।

असामान्य-
सर्प रेखा सा। विवश
उर्ध्वगामी धूम्र।
अनबूझा / अपरिचित
फिर भी सुंदर।
कुंठा पीड़ित-
अनिश्चित / निरुद्देश्य
आकाशगामी!!
धूम्र-यान!!
किंतु कहाँ है। किसको है?
इसका विश्वास।

18 जुलाई 2008

…….हमसफर कोई और है

हसरतें कुछ और अपनी, मंजिलें कुछ और हैं
काफिले कुछ और होंगे, हमसफर कोई और हैं

रात भर भटका करेंगे, साए में फानूस के
शम्मा तो जलती ही है, पर यह अंधेरे और हैं

यूँ तो हंसते ही रहे हैं, सुनके अपनी दांस्ता
छोड़ दे अपने निशाँ जो, वह तबस्सुम और हैं

उनकी जुल्फों के तले, सोया बहुत मैं रात भर
छाँव ठंडी बन सके जो, वह घटा कुछ और हैं

हमने खोए होश पी के, जाम अश्कों के कई
बिन पिए जो लड़खडाए, वह कदम कुछ और हैं

हमने काँटे ही चुने, थे गुल बहुत से राह में
फूल बन महका करें जो, ख़ार वह कुछ और हैं

वह लुटेरों का शहर था, मैं जहाँ लूटा गया
ख़ुद बिका हूँ मै जहाँ पर, वह शहर कुछ और हैं

वह दरख्त आज टूटा

मेरी हसरतों ने मुझको, तनहाइयों में लूटा
जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

वह शाम हो कहाँ पर, जिसको सहर के आँसू
किसी आँख से चुराकर, कोई रंग देंगे झूठा
किसी ख्वाब में सहर के, बिखरे हुए थे गेसू
यह अंजुमन हमारा, आहट से उनकी टूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

मेरी हर खुशी को तुमने, शोलों पे रख के पूछा
नहीं आग है यह कोई, यह धुआं उठा है झूठा
वह रेत के महल थे, जिन्हें हमने बज्म समझा
लो चल दिया संभालो, मेरा अजम आज टूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

यह अब्र हैं क़हर के, हो सके तो लौट आओ
किसी मोड़ पर न कहना, क्यों साथ अपना छूटा
वह सामने शहर है, अब मुझे न आजमाओ
तुम वह बशर हो जिसने, मंजिल पे मेरी लूटा

जहाँ सो गए थे थक कर, वह दरख्त आज टूटा

चला था मुसाफिर

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे।
अगर छाँव जुल्फों की ना मिल सकी तो,
सुलगते दहकते शरारे तो होंगे॥

यह कैसा शहर है जहाँ ग़म ही ग़म हैं,
तबस्सुम की मैय्यत से उड़ते कफ़न हैं।
नहीं दूर तक कोई रोशन शमा है,
लरजते अंधेरों में हंसते बशर हैं॥

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे.

पाँव उठते ही मंजिल हँसी आज हमपर,
यह क्या शौक़ है ज़ख्म अपने छुपा ले।
यकीं है की अश्कों में पिघली मुहब्बत,
इसे वस्ल का एक बहाना बनाले॥

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे.

16 जुलाई 2008

एक विस्फोट और...

एक विस्फोट,
जिसमें कुछ और कराहटें...
----खामोश हो गयीं ।
सब कुछ शायद, अचानक ही -
अनजाने में-
यह बात हो गयी।
कुछ पल बाद -
कुछ पल बाद कुछ होगा;
क्योंकि कुछ होना है।
कुछ वैसा ही/ जैसा-
कुछ पल पहले हुआ। क्योंकि.....
पहले वोह कुछ करता है
फिर सोचता है। समझता है।
ऐसा वोह हमेशा करता है-
ऐसा वह हमेशा करता है-
वह जानता है....
भविष्य अनिश्चित है
वह स्वयं अनिश्चित है।
इसीलिये उसने जो कुछ किया है/ करा है/ करेगा....
भविष्य निश्चित करने के लिए।
स्वयं को निश्चित करने के लिए।

लेकिन -
यही तो एक धोखा है,
मृग-मारीचिका है। वह
कुछ और अनिश्चित हो गया है। हुआ है। होगा.....
क्योंकि यह विस्फोट ।
कर्ण-भेदी विस्फोट। जिसमें -
जाने कितनी कराहटें दब गयीं
साँसे दम तोड़ गयीं।
उसकी/ उसके
भविष्य का रक्षक नहीं।
संहारक हैं।
कुछ और अनिश्चितता !
कुछ और समस्या !
कुछ और उलझन !!
कुछ और तड़पन !!
यह विस्फोट समाधान नहीं...
यह विस्फोट विश्राम नहीं....
यह विस्फोट उन्मूलन नहीं....
यह समस्या है-
यह सूचक है/ तूफ़ान का
यह आरम्भ है/ पतन का
लेकिन -
कैसा तूफ़ान ?
कैसा पतन ??
यही तो तूफ़ान है।
यही तो पतन है।
तब-
तूफ़ान से भी ज़्यादा और कोई तूफ़ान है ?
पतन से भी ज़्यादा और कोई पतन है ??
है..........है............है............!!!
अब उसी का आरम्भ होगा।
अब वही बस शेष है।
---अपना हाथ खोलो .....
यह लो-
और उछाल दो...
उधर -
जहाँ कुछ और कराहटें हैं....
सांसें हैं।
[ दम तोड़ती ]
उन्हें खामोश कर दो।
उन्हें सहारा दे दो॥
दे दो --
और एक विस्फोट !

व्यथा

निस्तेज - निःशब्द
शुन्य में झांकती मेरी आँखों में
अपनी,
तेज-मयी, सशब्द ऑंखें डाल कर
देखो। तब-
हाँ! तब ही शायद तुम मेरे
अंतर्मन की व्यथा समझ सको।
तुमने -
कभी कहीं
जल से जलती दुनिया देखी हो,
यदि तुमने
बारिश में झुलसते मकान देखें हों,
यदि तुमने -
उस तपन / झुलसन को
अपने मस्तिष्क पर उभर आयी
जल की बूंदों में-
---महसूस किया हो
तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे अश्रुजल की कथा समझ सको।

अस्फुट - पीले
शुष्क कांपते मेरे होठों पर
अपने-
रक्ताभ - स्फुटित होठों को रख कर
चुम्बन दो। तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे शब्दों की व्यथा समझ सको।

तुमने - कभी कहीं
अधरों पर बिखरे खंडहर देखें हों,
यदि तुमने सूखे पत्तों पर चलते कदम देखें हों,
यदि तुमने-
उस तड़पन / कसक को
अपने होठों पर लिपटी धूल में
.....................महसूस किया हो
तब-
हाँ! तब ही शायद तुम
मेरे शब्दों की कथा समझ सको।

एक कविता - दो पहलू

कोलाहल
जाने कितने वर्षों का
यह पीड़ित जाल,
मानव-जीवन से लिपटा
यह महाकाल।
धुंधला सा अस्तित्व लिए-
मृत्युजल का कई घूँट पिए-
प्राणी के कोमल अधरों पर,
जाने क्यों लिखता-
मृत्यु गीत।
कितनों की श्वासों की सिसकी।
कितनों के कानों की चीखें।
मिलजुल बनती रूप विशाल!!
कितना अद्भुत यह रूप नया-
कहते हैं इसको-
कोलाहल।
हर पल / हर क्षण
नया द्वंद - युद्ध
ख़ुद अपने को ललकार रहा।
प्रतिपल / तीव्रतम रूप रचा कर
कर्नेंद्रिय विच्छेद रहा।
अपने कानों पर हाथ धरे......
शान्ति ..शान्ति का उच्चारण कर-
जीवन की भिक्षा को आकुल यह -
कोलाहल
चीत्कार रहा!!
नीरवता
उफ़ ! कितना क्रूर यह तीखा शोर,
जीवन के सारे संबल अब,
होते जाते हैं कमजोर।
अचानक--
कोलाहल का मुंह भींच कर......
नीरवता का नंगा नांच।
सब कुछ शांत.......
.......सब कुछ क्लांत।
मरघट के गूंगे होठों पर,
अश्व-विजय की धूमिल मुस्कान।
जीवन का संकेत नहीं-
सृष्टि भी अविच्छन्न नहीं-
सिसकी भी अब क्षम्य नहीं।
बस शांत----------बस शांत!!
कौन सुनेगा नीरव-गान
कौन गुनेगा नीरस-तान
सारे प्राणी भटक रहे हैं --(?)
सुनने को साँसों का स्वर
कहाँ मिलेगा ?
कहाँ मिलेगा ?
मृदुल हास्य।
कहाँ मिटेगी -
मन की प्यास
मरघट के बुझते दीपक से-
नीरवता तब चीख पड़ी-
'मुक्ति चाहिए / नहीं चाहिए
कोलाहल के प्राणों का अनुदान।
मुझमें इतनी शक्ति नहीं है
करने दो अब मुझको-
विश्राम!!

13 जुलाई 2008

......पथिक सी

कुहासों के साए में,
मुखडा छुपाये हुये,
रात की गुनगुनाहट।
जैसे-
किसी अनजान हाथों ने
अनजाने ही अनजाने में
बेफिक्री से रख दिए हों
थरथराती वीणा के तारों पर
कम्पित -
दो हाथ।
बर्फीले झोंकों की हर आह्ट-
जैसे.......
अचानक झटक कर दूर फ़ेंक देने को
अन्यत्र ।
फिसलकर बह जाने को
...................उन्मत्त ।
किसी रजनी के अति कोमल से
गात ,
सन-सन करती तीखी लय पर .....
झींगुरों की झंकार।
धड़कती धडकनों के बहकते
जज़्बात।
थके - थके से क़दमों में
भयभीत / लक्ष्यहीन - पथिक सी
विपथगा या सुपथगा ??
अंधेरों के दृढ़ कुंठित बंधन में
मचलती यह बेबस सी
रात।


अम्बर के पीछे

नीले अम्बर के पीछे, दूर....
शून्य में / कहीं कुछ है।
बिखरा-बिखरा सा;
कैसा?
निश्चित नहीं।
सिर्फ़ अनुमान ही है। आभास ही है।
लेकिन फ़िर भी-
कुछ है.......!!
शायद--
मानव का प्रगतिवाद ??
नहीं -----नहीं
शायद यथार्थवाद।
उल्टा/तिरछा। बिगडा /सीधा-
अंतहीन---
यथार्थवाद ??
शायद--
क्रंदन करता मानव जीवन ?
जंजीरों से जकड़ी जीवित-
साँसे । गर्म -
धुंध में जलती / चीखती
आवाजें । किंतु
श्रवण-हीन चीखों की कडियाँ।
भू तक, नहीं पहुँच / सकती है -
फ़िर भी --
सिसक रही सिसकी की
ध्वनियाँ !!
शायद---
अम्बर की आड़ से झांकता--
विषाद का सूरज ।
प्रताडित - पीड़ित
जन-जीवन,
कड़वा ज़हर / ज़हरीला धुआं -
घुटता जीवन !!!

8 जुलाई 2008

एक क्षण

केवल एक क्षण -
और फिर आभास हुआ
जीवन में व्याप्त शून्यता का। जैसे-
अंधकार का पर्दा
आंखों पर एकाएक आ गया हो
मानो -

सृष्टि का अंतिम ज्वालामुखी
सजीव हो कर,
रगों में करवटें लेने लगा हो
मस्तक पर धमनियों की

धमक । गर्माहट
स्वेद कणों में उबाल
लाने का षडयंत्र करने लगी हों
बस। केवल एक क्षण
और सारे स्वप्न -
ताश के पत्तों की तरह / जैसे
बिखरने लगे हों !

तभी --
शंखनाद / संगीत लहरी
और प्रकाश की एक किरण
शून्य से तैर कर / मानो-
प्रवेश करने लगी मेरे जीवन में। और फिर -
केवल एक क्षण
मानो सजीव हो उठा हो मेरा जीवन।
और
बीत चला हो वह
अंधकारमय -
केवल एक क्षण !!

अनुभूति


भरी दोपहर को
तपती .....
तारकोल की सड़कों पर
नंगे पाँव चलो-
तुम्हे एहसास होगा
मजदूर की मजबूरियों का। तब -
जब तुम्हारा अपना मस्तिष्क
तुम्हारे पावों तले होगा
धूल को ठोकर मार कर आगे बढ़ने की
एक नाकाम साजिश में --
तुम अपने ही सर पर ठोकर मार चुके होगे.
तब तुम्हे एहसास होगा ...
वक़्त की नज़ाकत का.
माथे पर रेंगता पसीना
जब गर्म पिघलता लोहा बन कर
तुम्हारी पीठ पर

आहिस्ता-आहिस्ता रेंगते हुए
तुम्हारे अस्तित्व को तिलमिला देगा-
तब तुम्हे एहसास होगा
खून में जज़्ब उष्णता का.
और तब --
तुम्हे याद आएगी
सुबह की नर्म - ओस में भीगी
घास की। ठंडी हवा के पूर्वी झोकों की.

जिन्होंने तुम्हारी आखों को बोझिल बना कर
बंद कर रखा था.
तब ही तुम्हे बोध होगा
सत्य क्या है -

वास्तविकता क्या है !!

शुभारम्भ

आज एक यात्रा का आरम्भ कर रहा हूँ
एक अंतहीन यात्रा.....
माध्यम ज़रूर नया है
किंतु
भावनाएं अतीत के झरोखों से झांकती
तस्वीर........
सब कुछ कह देने को बेचैन
कब तक रहती खामोश
आख़िर -
कब तक !!