27 अक्तूबर 2008

तमन्ना


जुगनुओं ने भी दीयों से कुछ माँगा है

रौशनी दे के जग जगमगा दें

ऐसा हौसला

एक ख्वाब न हो

हकीकत बने। क्योंकि

आज उतरे हैं लाखों

तारे ज़मीन पर!!


दीपावली पर्व की हजारों - हजारों शुभकामनायें


19 अक्तूबर 2008

सच

अगर आज की रात ठंडी है तो
ज़रूरी नहीं - कल सुबह
ठंडी ही हो।
सुबह सूरज के निकलते ही
तुम्हे एहसास होगा
गुनगुनाहट का -
एक प्रक्रिया के आरम्भ होने का -
जिसमे घुलने लगेगी
रात की ठंडक।
और फिर तुम्हे एहसास होगा
उष्णता क्या होती है
जलन किसे कहते हैं
तपन किसे कहते हैं

अगर आज की शाम शाँत है तो
ज़रूरी नहीं - रात के पहर
शाँत ही हों।
अखबार हाथ में आते ही
तुम्हे एहसास होगा -
वास्तविकता का
एक तूफ़ान के कहर ढाने का
जिसमे कई जिस्म छलनी हुए होंगे
आग की लपलपाती गोलियों से
और फिर -
तुम्हे एहसास होगा
सत्य क्या होता है
शाश्वत किसे कहते हैं
ताण्डव किसे कहते हैं

तब तुम्हारे माथे पर चमकेगा
स्वेद-कण! और तुम उसे -
बार-बार पोंछना चाहोगे।
तब तुम्हारे मस्तिष्क पर चमकेगा
खून का रंग! और तुम उसे -
बार-बार मिटाना चाहोगे.
लेकिन ऐसा होगा नहीं
तब तक ............जबतक
रात की तरह ही
सुबह ठंडी हो।
............शाम की तरह ही
रात के पहर शांत ही हों।

13 अक्तूबर 2008

मुक़र्रर

“तुमसा हँसीं दुनिया में नहीं और कोई
मुझसा दीवाना नहीं दुनिया में और कोई”

“हर शम्मा थरथराती है ढल जाने के पहले
ज़िन्दगी भी कसमसाती है मौत आने के पहले”

“मुझे किसी और की तमन्ना ना हो सकी
बस! तेरी तमन्ना के सहारे ही यह उम्र गुज़र गयी”

“हसरत-ए-दीदार लिए, बैठा था एक ज़माने से
सिलसिला-ए-उम्र टूटा, एक तेरे आने से”

“क्या ख़ूब तू क़ातिल है, जाने जिगर
देख, तेरे आने से कफन सुर्ख हो चला”

“मेरे आगोश की तमन्ना है, तेरे दिल को ऐ सनम
क्यों जुल्म ढाती हो, दिल-ऐ-मासूम पर”

“मौत से यह कह दो, मुझे खौफ़ नहीं कोई
अब ज़िन्दगी पर ज़िन्दगी का, पहरा लगा दिया”

“इतना हँसीं ख़याल था, तेरे आने का ऐ-सनम
इसी उम्मीद के सहारे, लेते रहे जनम”

“जब से तेरी आंखों से कई जाम पिए हैं
सीने में बस तमन्ना-ऐ-वस्ल लिए हैं”

“इस क़दर ना तोता-चश्म हो यारब
ख़ैर! यह भी तेरी कातिल अदा सही”

“हर अदा में नज़ाक़त है, अंदाज़ में नफासत
नज़रों में शरारत है, तेरी चाल में क़यामत
अदाएं तेरी मुझे वहशी ना बना दें
कब तक मैं सम्भालूँ, इस दिल में शराफत”

“इस दिल की हर धड़कन से भी महबूब हो तुम मुझे
बन्दा तो क्या ख़ुदा से भी अज़ीज़ हो तुम मुझे’

“तेरे क़दमों की क़सम खा कर कहता हूँ मै सनम
कहीं खाक़ में न मिल जाऊं मैं, खुदा की क़सम”

“कोई किसी दर्द की दवा कब तक किया करे
जब दर्द-ए-दवा ख़ुद ही, दर्द में बसा करे”

12 अक्तूबर 2008

पसीने की बूँद

आज सड़कों ने भी / शायद
ठण्ड से बचने का प्रयास किया है.
तभी तो कोहरे का शाल,
.............ओढ़ लिया है।
शायद बहुत अधिक गर्म है यह –
कोहरे का शाल।
तभी तो सड़क के माथे पर
पसीने की बूँद चमक उठी है।
यह कोहरे का शाल नहीं हो सकता।
क्यों की –
केवल शाल ही इतनी गर्मी दे?
सम्भव नहीं। तब?
हो सकता है यह कम्बल हो
क्यों की एक कम्बल ही
इतनी गर्मी देता है (गरीबों को) लेकिन
इतनी नहीं की
पसीने की बूँद चमक उठे।
हो सकता है यह बूँद गर्मी से न जन्मी हो
हर-पल बोझ उठाने से ही, यह
पसीने की बूँद चमक
उठी है। लेकिन
फिर भी वह –
वह कोहरे का शाल ही है
जिसे सड़कों ने ओढ़
रखा है।

[08.12.1981]

11 अक्तूबर 2008

अर्ज़ किया है......


“दिले पुरखूं से न खेलो अबस
चश्मे मैगूँ से पी है अभी-अभी”

“गिला तेरा नहीं जो तेरी नज़रे बदल गई
है कसूर ज़माने का जो हवा बदल गयी”

“दोशीजा लबों का हुस्न ही जज़्बे-हुस्ने यार है
मसायब हैं मेरी मस्ते-शबाब क़ातिल तेरी अदाएं”

“बुझती हुई शमाँ के मालिक से पूछिए
कितना? कहाँ-कहाँ पे हुआ दर्द रत भर”

“यह क्या? आपकी नज़रें बदल गयीं
अभी ख्वाब में ही आपने इकरार किया था”

“पहले की तुमसे कोई, शिकवा कर सकूँ
अपने लबों से तुम मुझे, ख़ुद ही पुकार लो”

“कुछ और तबस्सुम लबों पर बिखेरिये
फिर मौत से जूझते परवानो को देखिये”

“ऐसा नहीं की हमने, न हँसने की कसम खाई है
मजबूर थे, जब भी हँसे तेरे अश्कों की याद आयी है”

“होने लगी है रात जवाँ चराग़ बुझ चले
आओ जलायें दिल की यहाँ रौशनी तो हो”

“उफ़! यह अदाएं, यह तेरी शोख हँसीं
जला आशियाँ की सरशारियाँ मसायब मेरी”

“कुछ और पिला आ, की मुझे होश है अभी
मुश्किल है क्या, दो जाम उठा की मुझे होश है अभी”

“लो मैं चल दिया जुदा होकर ज़माने से
सकूं मिल जायेगा दिल को, तड़पता था ज़माने से”

“खुदा की कसम तुझे तो मौत भी न पूछेगी
जलायेगी तुझे, आ-आ कर तुझसे रूठेगी”

“मिला दी खाक में हस्ती, तेरा हो साथ अश्कों से
यही इक आह निकली है, मेरे टूटे हुए दिल से”

10 अक्तूबर 2008

खोज

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर

छलावा, छलता रहा मुझे –

ज्योति-पुंज का। दूर

और भी दूर होती गयी किरण

क्षीण। अति-क्षीण होते-होते

खो गयी बियाबन में प्रकाश की बूँद

शनैः -शनैः

माथे पर उभरे स्वेद बिन्दु

निढाल साँसों को

ढाल बनाकर – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

जलते मरुस्थल!

काँटों की बाढ़ !!

पथरीले जंगल!

महकते उपवन!!

कुछ भी नहीं रोक सके मेरी

जिजीविषा का उन्माद।

निस्तेज आंखों पर छाये अंधेरे

भूख से अकुलाती आंतें –

पीठ से चिपकता पेट। कांपती टांगें

सूखे जिस्म के सहारे

ढूँढता रहा हूँ बियाबान में रौशनी की किरण।

शनैः -शनैः

होठों पर उभरी शुष्क सलवटों पर

ढुलक कर आ गए

स्वेद कणों ने किया है

जीवन संचार –

वन भेदन को – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

[August 7th 1985]

9 अक्तूबर 2008

अर्ज़ है......

"आज फिर रोशन हुआ चराग मेरी महफिल में
जवाब ख़त का आया मुझे ज़िन्दगी देने"

"गुजरी बहार थी कभी दामन के रास्ते
अब तो यहाँ निशान ही बाकी बचे रहे"

"तेरे जज़्बात को हम क्या जानें ?
बनते रहे, बिगड़ते रहे आशियाने"

"तेरे सुर्खरू हयात की लाली जानम,
मेरे प्यार के मय की साकी जानम।
चम्पई रंग में लिपटा तेरा मरमरी शबाब,
किसी शायर के जज़्बात की परस्तिश जानम॥"

"याद है मुझको तेरे खिलवाड़ का मंजर,
नज़रों से मेरी नज़रों के तेरे प्यार का मंजर।
जला कर दिल में इक शम्मा अंधेरों को बुला लेना,
तेरे इकरार करने का हँसी एक ख्वाब का मंजर॥"

"करार तेरा क्यों कर मुझे बे-करार करता है?
तोता-चश्म होकर क्यों नज़र का वार करता है।"

"दिले शिकस्ता से पूछिए संगो-खिश्त का अंदाज़
किस तरह बिखरा क्रिचियों में आइना दिल का । "

8 अक्तूबर 2008

विभ्रम


व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की
व्यर्थ ही बिता रहा है
वह पल / जो पल
क्षण-प्रतिक्षण जा रहा है;
शून्य में.

सुबह ही देखा था कहीं
आइना – टूटा हुआ.
बिखरा हुआ.
अपना ही चेहरा दिखा
सहमा हुआ.
बिगडा हुआ.
और फिर टूटा मन का विभ्रम –
मैं एक नहीं था
हर टुकड़े से मैं ही झाँक रहा था
ख़ुद अपने को आँक रहा था.
मेरे मुह में कसैला स्वाद
और भी कसैला होकर
एहसास दे गया अपनी
तीव्रता का.
तीक्ष्णता का.

क्योंकि-
अब आने वाला हर पथिक
दिखता है व्यथित. किंतु
सुबह की सफेदी में –
नहीं देखता
आइना .......टूटा हुआ अब तो
देखता है
मेरे मन का टूटा विभ्रम.
क्योंकि वह नहीं लेना चाहता
जोखिम –
अपने प्रतिबिम्ब को
टुकडों में बाटने का.
उसका –
व्यथित मन
प्यास में…
आस में…
चाह में किसी की !

7 अक्तूबर 2008

बहार आती ही नहीं

मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं
चश्म-ए-तर से बहारें नज़र आती ही नहीं
न जाने राज़ क्या है, दिले हालत क्या है?
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

बहारें आज तलक़ मुझसे ख़फा क्यों हैं
उनकी आंखों के सागर में नशा क्यों है
मुझे अब ज़िन्दगी जाने क्यों रुलाती ही नहीं
हंस पाता हूँ और अश्कों को बहा पता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

महफिल-ए-गुल में, काँटों की ज़रूरत क्या है
उनकी साँसों में खुशबू की ज़रूरत क्या है
दीवानों को शम्मा, जाने क्यों जलाती ही नहीं
जाम लबरेज़ हैं, होठों से लगाता ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

किसी मायूस जिगर में, मुस्कराहट क्यों हैं
ख़्वाब की राख से उठता, धुवां क्यों हैं
‘धीर’ अब ज़िन्दगी कंधों से संभालती ही नहीं
आरजू मौत की करता हूँ, जो मिलती ही नहीं
मेरे जीवन में बहार आती ही नहीं

(26.08.1979)

6 अक्तूबर 2008

सभ्यता को आइना

लगी है किसी की –
नुमाइश यहाँ
आइये! देखिये!!
किसी की पाक़ इज्जत के उड़ते
दरख्ते.
लेकिन –
मुस्कुराना यहाँ बिल्कुल मना है.
ठहाके बेखौफ़ लगाइए?
आँसू न बहाइये.
वह तो बहेंगे ही नहीं
केवल कहकहे लगाए??

झपटिये / नोचिए
मगर जरा शराफत के साथ.
लूटिये / खसोटिये
मगर जरा नज़ाकत के साथ.
लेकिन – ठहरिये
जरा दूर ही रहिये
अपने उजले-से (?) दामन पर
दाग न लगवाइये.
देखिया न
कितनी गलीज़ है यह
इसे पकड़ कर काँधों का सहारा
ना दीजिये –
आप देखते नहीं....
कितनी मुंहफट है यह
कहीं सच न बोल दे !
कहीं जलील न कर दे !!
आपके पाक़ दामन पर –
थूंक न दे !!!
होशियारी से / ज़रा दूर से
केवल हँसी ही उडाइये.
क्योंकि –
यही तो आपको आता है.


(13.01.1980)

5 अक्तूबर 2008

जिज्ञासा


सागर की लहरों में
आज जिज्ञासा है
आकाश चूमने की.
इसीलिए तो उनमे
उफान आ रहा है
उबाल आ रहा है
शायद इसलिए
क्योंकि
सूरज की तपिश अबतक
उन्हें झुलसाती रही है / जलाती रही है
और अब – जब की
लहरों में सिमटा है एक
उबाल / उफान
लहरों ने ठान ली है
आकाश छूने की जिज्ञासा.
लेकिन मैं –
अब भी किनारे पर ही खड़ा हूँ.
सागर के.
इस प्रतीक्षा में कि
लहरें नीचे ना गिरें
लहरें ऊपर ही उठें
आकाश चूमने की जिज्ञासा
के साथ.

हो सके तो मेरा / एकमात्र
सहारा ही ले लें.
लेकिन शायद –
उन्हें इस बात का ज्ञान ही नहीं है.
उनका एकाग्र-चिंतन / मुझमें
ईर्ष्याभाव उत्पन्न करने लगा है.
अब मेरा मन
उन लहरों के उफान से भयभीत होकर
भाग जाने को
उद्द्वेलित कर रहा है.

तभी....
मुझे दिखाई पड़ता है –
एक जूही का फूल.
लहरों में डोलता –
............जूही का फूल.
उसकी जवानी डोलती रही लहरों पर
और –
मैं अब भी विस्मित
उसे एक-टक देख रहा हूँ
आगे बढ़ रहा हूँ ..........
उस फूल को छूने के लिए,
और अब मुझे लहरों के उफान / उबाल से
भय नहीं लग रहा है
और शायद इसीलिए
लहरें मुझे छूने लगी हैं.
मुझे भिगोने लगी है.
लहरों ने मुझे अपने में समेट लिया हैं.
और मुझे ही सहारा दे दिया है
आकाश तक उठाने का संबल दे दिया है –
मुझे –
हाँ मुझे ही आकाश चूमना होगा.
लहरों की जिज्ञासा
मुझे ही पूरी करनी होगी !!

(21.01.1982)

4 अक्तूबर 2008

अधूरा संवाद

आज रात मैं
जागता रहा. सोचता रहा –
कि कल जब तुम मुझसे तन्हाई में/ कभी
मिलोगी. तो मैं तुमसे -
यह कहूँगा .. .. .. वह कहूँगा.

तुम्हारे हाथों को-
कोमल अति-कोमल ही तो?
हाँ, तो तुम्हारे हाथों को,
हाथों में लेकर / अधरों के
सागर तक लाकर
कोमल-सा चुम्बन दूँगा.
जो कहना चाहूँगा नज़रों से
कुछ यूँ ही लब से कह दूँगा….

लेकिन पहले मैं-
जी-भर कर तेरे होठों को...
तेरे मुखड़े को...
तेरे कुंतल को / देखूँगा.
हो सकता है.
नहीं-
यही होगा!!
तेरे लब थर-थराते होंगे
तेरे गालों पर सूरज की सुर्खी छुपकर
शर्माएगी.
धड़कन तेरे सीने की
इस दिल की धड़कन से मिल जायेगी.
और फिर –
मैं तुमसे
यह कहूँगा .. .. .. वह कहूँगा.

3 अक्तूबर 2008

पतझड़


मुस्कुराने दो उन पत्तों को
जो अब तक शाखों पर
इतरा रहे हैं / लहरा रहे हैं -
मुस्कुराने दो उन शाखों को
जिन पर अब तक पत्ते
इतरा रहे हैं / लहरा रहे हैं -
हवा के तेज झोकों से उन्हें
अब तक-
मिलता रहा संगीत.
लेकिन अब यही हवायें उन्हें
सिसकी देंगी
उफ़! कितना क्रूर आभास.
लेकिन यह होगा
क्योंकि पतझड़......
अब आ रहा है. पत्ते
अब किसी पैरों तले रौंदे जायेंगे.
चरर-मरर; चरर-मरर
कराहेंगे. हो सकता है-
दीमक उन्हें चर डाले
क्योंकि पतझड़......
अब आ रहा है. पत्ते -
नहीं! नहीं!! .......आह
मेरी आँखे भीग गयी हैं
क्योंकि पतझड़......
अब आ गया है. पतझड़-
आ गया!!!

2 अक्तूबर 2008

आज हो जो सहर......

आज हो जो सहर, मुझसे वादा करो
आओगे तुम सनम जान पर खेल कर
रूठने जो लगे मौत मुझसे सनम
इक नज़र देख लेना मुलाक़ात में
आज हो जो सहर.....

उसके हंसने से बिजली चमकने लगी
जैसे साकी से बोतल खनकने लगी
उसने खोली जो जुल्फे घटा थम गयी
इस कदर थी हंसीं फूल शर्मा गए
इक नज़र देख लेना......

याद तुमको अगर आज आए मेरी
आँख से बह पड़े आंसुओं की झड़ी
हम यह समझेंगे जन्नत हमें मिल गया
छोड़ सकते नहीं तेरा दामन सनम
इक नज़र देख लेना......

जब से देखा तुम्हें दिल यह कहने लगा
अब ना थामेंगे दामन किसी और का
मौत मेरी हुयी रुसवा हम ही हुए
देख अब तो नहीं तुमको मुझसे गिला
इक नज़र देख लेना......

बुजदिल है अहबाब…

अंधेरों के झुके हुए साए है साथ-साथ
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

मायूस हो रहे हैं कई और हमसफ़र
इस तरह चल सकेगा, भला कौन साथ-साथ
न अज़्म है, न शौक़ है, क्या खूब तू बशर
एक बुत है, खामोश है, बुजदिल है अहबाब
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

मंजिल दिखा-दिखा के मुझे लूटते रहे
लुटता रहा नशे में की लुट रहें हैं साथ-साथ
ये ग़म, ये हवादिस, इन्हीं से जूझते रहे
है शब् भी, शराब भी, मजबूर है शबाब
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

अंधेरों के झुके हुए साए है साथ-साथ
दूर बहुत झुरमुटों में खो गए हैं अफताब

शमा रोशन रहे.....


शमा ना थरथराये, शमा रोशन रहे
और भी सजती रहे महफिल, शाम ढलती रहे
आज की हर नज़्म में शामिल आप हों
अभी तो जी लें, न जाने कब यह बात हो
तेरे होठों से निकले अल्फाज़ हम चूम ही लेंगे
होठों से निकला हर गीत हमारा होगा
धड़कने दे दिल की धड़कन को इस तरह
हर बार तेरा नाम ही लेता रहूँ मैं

1 अक्तूबर 2008

जिद है….

“आज बारिश हुई है चाँद से शोलों की
मिला दी खाक़ में हस्ती मुझ गम नशीनों की
क्या खूब यह तबस्सुम, यह रिंद, यह क़हर उनका
इस सिन में यह शौक़, यह सितम उनका”

“ज़िद है अश्कों की होठों से जा लिपटने की
कसम होठों ने खाई है ग़म में जलने की
उलझी हुई जुल्फों से क्यों खेल खेले यह हवा
इनकी सोहबत से मुमकिन है मौत आने की”

“तू हुस्न है, तू इश्क है, नहीं कज़ा ऐ दोस्त
छोड़ यह तुंद चलन, ज़ख्म मचल जायेंगे
दिल यह शीशा है, पत्थर नहीं, टूट जायेगा
मैं तो फरजाना हूँ, फरजाना यह बहक जायेगा”

यह शब, यह शबनम न बुझा पायेगी
यह रख्स नहीं वो जो बुझा दी जाए
बुझ-बुझ के जलती है, जल-जल के बुझती है
हो लाख हवादिस, बे-खौफ जला करती है”