18 जुलाई 2008

चला था मुसाफिर

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे।
अगर छाँव जुल्फों की ना मिल सकी तो,
सुलगते दहकते शरारे तो होंगे॥

यह कैसा शहर है जहाँ ग़म ही ग़म हैं,
तबस्सुम की मैय्यत से उड़ते कफ़न हैं।
नहीं दूर तक कोई रोशन शमा है,
लरजते अंधेरों में हंसते बशर हैं॥

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे.

पाँव उठते ही मंजिल हँसी आज हमपर,
यह क्या शौक़ है ज़ख्म अपने छुपा ले।
यकीं है की अश्कों में पिघली मुहब्बत,
इसे वस्ल का एक बहाना बनाले॥

चला था मुसाफिर इस इरादे को लेकर,
कोई हो ना हो साथ कांटे तो होंगे.

1 टिप्पणी:

  1. सुन्दर रचना है।

    यह कैसा शहर है जहाँ ग़म ही ग़म हैं,
    तबस्सुम की मैय्यत से उड़ते कफ़न हैं।
    नहीं दूर तक कोई रोशन शमा है,
    लरजते अंधेरों में हंसते बशर हैं॥

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