5 अक्तूबर 2008

जिज्ञासा


सागर की लहरों में
आज जिज्ञासा है
आकाश चूमने की.
इसीलिए तो उनमे
उफान आ रहा है
उबाल आ रहा है
शायद इसलिए
क्योंकि
सूरज की तपिश अबतक
उन्हें झुलसाती रही है / जलाती रही है
और अब – जब की
लहरों में सिमटा है एक
उबाल / उफान
लहरों ने ठान ली है
आकाश छूने की जिज्ञासा.
लेकिन मैं –
अब भी किनारे पर ही खड़ा हूँ.
सागर के.
इस प्रतीक्षा में कि
लहरें नीचे ना गिरें
लहरें ऊपर ही उठें
आकाश चूमने की जिज्ञासा
के साथ.

हो सके तो मेरा / एकमात्र
सहारा ही ले लें.
लेकिन शायद –
उन्हें इस बात का ज्ञान ही नहीं है.
उनका एकाग्र-चिंतन / मुझमें
ईर्ष्याभाव उत्पन्न करने लगा है.
अब मेरा मन
उन लहरों के उफान से भयभीत होकर
भाग जाने को
उद्द्वेलित कर रहा है.

तभी....
मुझे दिखाई पड़ता है –
एक जूही का फूल.
लहरों में डोलता –
............जूही का फूल.
उसकी जवानी डोलती रही लहरों पर
और –
मैं अब भी विस्मित
उसे एक-टक देख रहा हूँ
आगे बढ़ रहा हूँ ..........
उस फूल को छूने के लिए,
और अब मुझे लहरों के उफान / उबाल से
भय नहीं लग रहा है
और शायद इसीलिए
लहरें मुझे छूने लगी हैं.
मुझे भिगोने लगी है.
लहरों ने मुझे अपने में समेट लिया हैं.
और मुझे ही सहारा दे दिया है
आकाश तक उठाने का संबल दे दिया है –
मुझे –
हाँ मुझे ही आकाश चूमना होगा.
लहरों की जिज्ञासा
मुझे ही पूरी करनी होगी !!

(21.01.1982)

2 टिप्‍पणियां:

  1. धिरेन्द्र किशोर जी भावनायें जब कविता का रुप लेती है,तो जैसे एक सुंदर संसार ही रच देती है/बहुत अच्छी कविता है/
    संगीता

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