8 जुलाई 2008

अनुभूति


भरी दोपहर को
तपती .....
तारकोल की सड़कों पर
नंगे पाँव चलो-
तुम्हे एहसास होगा
मजदूर की मजबूरियों का। तब -
जब तुम्हारा अपना मस्तिष्क
तुम्हारे पावों तले होगा
धूल को ठोकर मार कर आगे बढ़ने की
एक नाकाम साजिश में --
तुम अपने ही सर पर ठोकर मार चुके होगे.
तब तुम्हे एहसास होगा ...
वक़्त की नज़ाकत का.
माथे पर रेंगता पसीना
जब गर्म पिघलता लोहा बन कर
तुम्हारी पीठ पर

आहिस्ता-आहिस्ता रेंगते हुए
तुम्हारे अस्तित्व को तिलमिला देगा-
तब तुम्हे एहसास होगा
खून में जज़्ब उष्णता का.
और तब --
तुम्हे याद आएगी
सुबह की नर्म - ओस में भीगी
घास की। ठंडी हवा के पूर्वी झोकों की.

जिन्होंने तुम्हारी आखों को बोझिल बना कर
बंद कर रखा था.
तब ही तुम्हे बोध होगा
सत्य क्या है -

वास्तविकता क्या है !!

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