9 नवंबर 2008

धुंए के अस्तित्व

क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?
शनैः-शनैः-----
गाढ़ी होती धुंए की परतें!
दम घोंटती धुंए की चादर!!
क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

सड़कों पर दौड़ती सीटियाँ;
मकानों से झांकती वीरानियाँ;
.......किसी से अनजाने में ही
छलक पड़ती हैं-
शमशानों की खामोशियाँ!
किसके लिए-
यह कष्ट कर रही हैं?
किसके लिए -
यह त्याग कर रही हैं?
[शायद -
सम्पूर्ण मानव जाति के
हित में / व्रत में।
क्योंकि इंसान ही को प्रेम है-
वीरानगी से]
क्या यह ग्लोब के टुकडों की
भूखी हैं?
मेरा लहू बिकाऊ है।
आप क्यों नहीं खरीद लेते?
इन्हें मेरा लहू पिलाईये / अर्पित कीजिये
इसी के तो इन्हें प्यास है - आस है;
मेरा मांस -
उनके आगे फेंकिये / भक्षण कराइए -
इसी के वह भूखे हैं।
लेकिन-
क्यों आपकी आखों से?
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

सूखे होठों पर खेलती हँसी;
ज़िन्दगी मौत से जूझती-सी कहीं;
साँस लेते ही अचानक-
.......कसमसाने लगी
मौत फिर से कहीं।
किसने कहा है-
खून सारा ही पी लो?
किसने कहा है-
मांस सारा ही खा लो?
न कोई अब भूख से त्रस्त है।
न रहेगा।
न अब कोई कमज़ोर है।
न रहेगा। क्योंकि -
दूध की सरिता प्रवाहशील है?
दुग्ध-समाधि क्यों नहीं ले लेते??
[बाढ़ की-
अतुलनीय जलराशि में हुई
जल-समाधि की भाँति। ]
क्यों नहीं-
बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं?
देखते नहीं-
कितनी सुविधा है!
राम-राज्य है!!
स्वराज्य है!!!
अहिंसा-वाद है!!!!
और तो और
समाजवाद का (मामूली सा) बोझ/ शायद है-
[कल ही-
उसमें दबकर/ उस
दुर्बल/निर्बल प्रजा की
मौत हो गयी है
जिसकी झुकी पीठ पर। इस-
समाजवाद का ढोंग
लदा था। ]
बोझ है तो क्या?
है तो समाजवाद ही।
लेकिन-क्यों?
आपकी आखों से-
धुंए के अस्तित्व झलकते हैं?

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