31 जनवरी 2017

रुको !!

रुको
मत जाना फेर कर मुँह अपना
अभी बहुत कुछ कहना है

क्यों आसमाँ पे टाँके तारे
धरती पे फूल इतने सारे
क्यों इंद्रा धनुष में रंग डाले
वीणा के स्वर में झंकारें

रुको
मत उठाना सर से ओढ़नी अपनी
अभी कुछ और पहर रहना है

क्यों सुरमई रात के पहरे
चाँद चांदनी को बिखेरे
क्यों रेशमी सुबह सुनहरे
आसमान में रँग उकेरे

रुको
मत सजाना आँख में काजल
अश्रुओं को बहना है

रुको
मत जाना फेर कर मुँह अपना
अभी बहुत कुछ कहना है
रुको...

चाहता हूँ......

ख़त लिखूं या गीत शब्दों को पिरोकर
काग़ज़ में तहँ लगाना चाहता हूँ

बंद दरवाजों की चौखट पर ठहर कर
बेसबब आवाज़ लगाना चाहता हूँ

आँख के खुलने का सदमा इस क़दर है
और कुछ सपने छुपाना चाहता हूँ

कोई समझे या ना समझे दर्द अपना
गीत ऐसे गुनगुनाना चाहता हूँ

क़तरे क़तरे को सुराही में जमा कर
जाम कुछ नायाब बनाना चाहता हूँ