24 सितंबर 2008

मुक्तांगन में....

"अधरों तक आने को व्याकुल मन में घिरते मुक्त विचार
आलिंगन में कस अधरों का, लेते हैं चुम्बन सुकुमार"

"तुम्हे क्या प्रणति दूँ मैं चिंतन करती ह्रदय-वीणा
प्रिये कहूं, प्रियतमा कहूं, या कह दूँ कवि की पीड़ा"

"हर बंधन का लंघन कर के स्मरण तुम्हारा आता है
चंद्र रश्मि भी मद्धिम लगती, मुखडा तेरा भाता है"

"रक्त की हर बूँद थिरक उठी आपकी बातों से,
महक उठा जीवन उपवन आपकी साँसों से"

"छद्म रूप तेरा छलता मुझको सपनों में आ-आ कर,
नयना आंसू वर्षा करते, सिसकी के सुर-लय पर"

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