13 जुलाई 2008

......पथिक सी

कुहासों के साए में,
मुखडा छुपाये हुये,
रात की गुनगुनाहट।
जैसे-
किसी अनजान हाथों ने
अनजाने ही अनजाने में
बेफिक्री से रख दिए हों
थरथराती वीणा के तारों पर
कम्पित -
दो हाथ।
बर्फीले झोंकों की हर आह्ट-
जैसे.......
अचानक झटक कर दूर फ़ेंक देने को
अन्यत्र ।
फिसलकर बह जाने को
...................उन्मत्त ।
किसी रजनी के अति कोमल से
गात ,
सन-सन करती तीखी लय पर .....
झींगुरों की झंकार।
धड़कती धडकनों के बहकते
जज़्बात।
थके - थके से क़दमों में
भयभीत / लक्ष्यहीन - पथिक सी
विपथगा या सुपथगा ??
अंधेरों के दृढ़ कुंठित बंधन में
मचलती यह बेबस सी
रात।


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