10 अक्तूबर 2008

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भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर

छलावा, छलता रहा मुझे –

ज्योति-पुंज का। दूर

और भी दूर होती गयी किरण

क्षीण। अति-क्षीण होते-होते

खो गयी बियाबन में प्रकाश की बूँद

शनैः -शनैः

माथे पर उभरे स्वेद बिन्दु

निढाल साँसों को

ढाल बनाकर – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

जलते मरुस्थल!

काँटों की बाढ़ !!

पथरीले जंगल!

महकते उपवन!!

कुछ भी नहीं रोक सके मेरी

जिजीविषा का उन्माद।

निस्तेज आंखों पर छाये अंधेरे

भूख से अकुलाती आंतें –

पीठ से चिपकता पेट। कांपती टांगें

सूखे जिस्म के सहारे

ढूँढता रहा हूँ बियाबान में रौशनी की किरण।

शनैः -शनैः

होठों पर उभरी शुष्क सलवटों पर

ढुलक कर आ गए

स्वेद कणों ने किया है

जीवन संचार –

वन भेदन को – फिर भी

भागता रहा हूँ, बदहवास-सा

क्षीण। अति-क्षीण होते –

ज्योति-पुंज की ओर !

[August 7th 1985]

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