क्षीण। अति-क्षीण होते –
ज्योति-पुंज की ओर
छलावा, छलता रहा मुझे –
ज्योति-पुंज का। दूर
और भी दूर होती गयी किरण
क्षीण। अति-क्षीण होते-होते
खो गयी बियाबन में प्रकाश की बूँद
शनैः -शनैः
माथे पर उभरे स्वेद बिन्दु
निढाल साँसों को
ढाल बनाकर – फिर भी
भागता रहा हूँ, बदहवास-सा
क्षीण। अति-क्षीण होते –
ज्योति-पुंज की ओर !
जलते मरुस्थल!
काँटों की बाढ़ !!
पथरीले जंगल!
महकते उपवन!!
कुछ भी नहीं रोक सके मेरी
जिजीविषा का उन्माद।
निस्तेज आंखों पर छाये अंधेरे
भूख से अकुलाती आंतें –
पीठ से चिपकता पेट। कांपती टांगें
सूखे जिस्म के सहारे
ढूँढता रहा हूँ बियाबान में रौशनी की किरण।
शनैः -शनैः
होठों पर उभरी शुष्क सलवटों पर
ढुलक कर आ गए
स्वेद कणों ने किया है
जीवन संचार –
वन भेदन को – फिर भी
भागता रहा हूँ, बदहवास-सा
क्षीण। अति-क्षीण होते –
ज्योति-पुंज की ओर !
[August 7th 1985]
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