ख़त लिखूं या गीत शब्दों को पिरोकर
काग़ज़ में तहँ लगाना चाहता हूँ
बंद दरवाजों की चौखट पर ठहर कर
बेसबब आवाज़ लगाना चाहता हूँ
आँख के खुलने का सदमा इस क़दर है
और कुछ सपने छुपाना चाहता हूँ
कोई समझे या ना समझे दर्द अपना
गीत ऐसे गुनगुनाना चाहता हूँ
क़तरे क़तरे को सुराही में जमा कर
जाम कुछ नायाब बनाना चाहता हूँ
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