
जुगनुओं ने भी दीयों से कुछ माँगा है
रौशनी दे के जग जगमगा दें
ऐसा हौसला
एक ख्वाब न हो
हकीकत बने। क्योंकि
आज उतरे हैं लाखों
तारे ज़मीन पर!!
दीपावली पर्व की हजारों - हजारों शुभकामनायें
आज सड़कों ने भी / शायद
ठण्ड से बचने का प्रयास किया है.
तभी तो कोहरे का शाल,
.............ओढ़ लिया है।
शायद बहुत अधिक गर्म है यह –
कोहरे का शाल।
तभी तो सड़क के माथे पर
पसीने की बूँद चमक उठी है।
यह कोहरे का शाल नहीं हो सकता।
क्यों की –
केवल शाल ही इतनी गर्मी दे?
सम्भव नहीं। तब?
हो सकता है यह कम्बल हो
क्यों की एक कम्बल ही
इतनी गर्मी देता है (गरीबों को) लेकिन
इतनी नहीं की
पसीने की बूँद चमक उठे।
हो सकता है यह बूँद गर्मी से न जन्मी हो
हर-पल बोझ उठाने से ही, यह
पसीने की बूँद चमक
उठी है। लेकिन
फिर भी वह –
वह कोहरे का शाल ही है
जिसे सड़कों ने ओढ़
रखा है।
[08.12.1981]
क्षीण। अति-क्षीण होते –
ज्योति-पुंज की ओर
छलावा, छलता रहा मुझे –
ज्योति-पुंज का। दूर
और भी दूर होती गयी किरण
क्षीण। अति-क्षीण होते-होते
खो गयी बियाबन में प्रकाश की बूँद
शनैः -शनैः
माथे पर उभरे स्वेद बिन्दु
निढाल साँसों को
ढाल बनाकर – फिर भी
भागता रहा हूँ, बदहवास-सा
क्षीण। अति-क्षीण होते –
ज्योति-पुंज की ओर !
जलते मरुस्थल!
काँटों की बाढ़ !!
पथरीले जंगल!
महकते उपवन!!
कुछ भी नहीं रोक सके मेरी
जिजीविषा का उन्माद।
निस्तेज आंखों पर छाये अंधेरे
भूख से अकुलाती आंतें –
पीठ से चिपकता पेट। कांपती टांगें
सूखे जिस्म के सहारे
ढूँढता रहा हूँ बियाबान में रौशनी की किरण।
शनैः -शनैः
होठों पर उभरी शुष्क सलवटों पर
ढुलक कर आ गए
स्वेद कणों ने किया है
जीवन संचार –
वन भेदन को – फिर भी
भागता रहा हूँ, बदहवास-सा
क्षीण। अति-क्षीण होते –
ज्योति-पुंज की ओर !
[August 7th 1985]
“आज बारिश हुई है चाँद से शोलों की
मिला दी खाक़ में हस्ती मुझ गम नशीनों की
क्या खूब यह तबस्सुम, यह रिंद, यह क़हर उनका
इस सिन में यह शौक़, यह सितम उनका”
“ज़िद है अश्कों की होठों से जा लिपटने की
कसम होठों ने खाई है ग़म में जलने की
उलझी हुई जुल्फों से क्यों खेल खेले यह हवा
इनकी सोहबत से मुमकिन है मौत आने की”
“तू हुस्न है, तू इश्क है, नहीं कज़ा ऐ दोस्त
छोड़ यह तुंद चलन, ज़ख्म मचल जायेंगे
दिल यह शीशा है, पत्थर नहीं, टूट जायेगा
मैं तो फरजाना हूँ, फरजाना यह बहक जायेगा”
यह शब, यह शबनम न बुझा पायेगी
यह रख्स नहीं वो जो बुझा दी जाए
बुझ-बुझ के जलती है, जल-जल के बुझती है
हो लाख हवादिस, बे-खौफ जला करती है”